जब राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भारतीय संसद में बहस हो रही थी तो भाजपा के नेता सबसे आगे बढ़कर कह रहे थे कि यह कानून और ज्यादा मजबूत होना चाहिए। सरकार में आने के बाद हमें कहा जा रहा है कि इस अधिनियम का समर्थन भाजपा ने महज चुनावों के मद्देनजर किया था, अन्यथा पार्टी इसके खलिाफ है।
भाजपा नेता शांता कुमार के अध्यक्षता में बनी एक उच्च स्तरीय समिति ने खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत दिए जाने वाले अधिकारों में कटौती की सिफारिश की है।
समिति की सिफारिशें इस अधिनियम को कमजोर करेंगी। अपनी तमाम खामियों के बावजूद बिहार जैसे राज्यों में इस अधिनियम को लागू करने से आम लोगों को काफी लाभ मिला है।
भारत के पूर्व खाद्य-मंत्री और भाजपा नेता शांता कुमार ने हाल ही में बयान दिया कि पिछले साल खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर भाजपा का समर्थन एक बहाना था। शांताकुमार की अगुवाई में बनी एक उच्च स्तरीय समिति ने भारतीय खाद्य निगम के बारे में एक रिपोर्ट सौंपी है जिसमें खाद्य सुरक्षा अधिनियम में कटौती की सिफारिश की गई है।
यह अधिनियम तीन तरह के अधिकारों की गारंटी देता है। इसके अंतर्गत बच्चों को पोषाहार देना, मातृत्व लाभ देना तथा सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सस्ते दर पर खाद् पदार्थ देना शामिल है।
शांताकुमार समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों में बाकी बातों के अलावा कहा गया है-
(1) 67 प्रतिशत की जगह कुल 40 प्रतिशत आबादी को सस्ते दर पर खाद्य पदार्थ दिया जाए।
(2) खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले परिवारों को प्रति व्यक्ति प्रति माह पाँच किलो की जगह सात किलो अनाज दिया जाय।
(3) योजना के तहत दिए जाने वाले चावल और गेहूं का मूल्य क्रमशः तीन रुपये और दो रुपये प्रति किलो से बढ़ाकर उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य का आधा कर दिया जाए।
(4) जिन राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूरी तरह कंप्यूटरीकृत नहीं किया गया है उन राज्यों में इसे इसके बाद लागू किया जाए।
अगर सरकार इन सिफारिशों पर अमल करती है तो इससे गड़बड़ी और भ्रष्टाचार के बढ़ने की आशंका है। कंप्यूटरीकरण से कामकाज में मदद मिलती है लेकिन ये भ्रष्टाचार रोकने का पुख्ता उपाय नहीं है। इससे बेहतर होगा कि आम लोगों में अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता बढ़े।
अधिकार के लिए संघर्ष
आम लोगों को अपने अधिकारों के बारे में पता होगा तो वे उसके लिए खुद संघर्ष करेंगे। अगर योजना के तहत दिए जाने वाले अनाज की कीमत कम होगी तो लोग इसके लिए ज्यादा संघर्ष करेंगे। क्योंकि कम कीमत की वजह से उन्हें ये अनाज अपनी खरीद क्षमता के भीतर जान पड़ेगा।
यदि खाद्य सुरक्षा के दायरे में आने वाले लोगों की संख्या बड़ी होगी तो सरकार पर पड़ने वाला सामूहिक दबाव भी कहीं ज्यादा होगा।
खाद्य सुरक्षा का बड़ा दायरा, विक्रय मूल्य का कम होना और अधिकारों के बारे में स्पष्ट जानकारी जैसी बातें सार्वजनिक वितरण प्रणाली में सुधार के मुख्य तत्व हैं और कई राज्यों में इन्हें कारगर तरीके से अपनाया गया है।
भ्रष्टाचार से जर्जर बिहार जैसे राज्य तक में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में बुनियादी बदलाव के लिए इस नजरिए को अपनाया जा रहा है। आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए बिहार सरकार ने बीते कुछ महीनों में खाद्य सुरक्षा अधिनियम को लागू करने के लिए जोरदार प्रयास किए हैं।
बिहार में सफल प्रयोग
बिहार में ‘सामाजिक, आर्थिक एवं जाति जनगणना‘ में दर्ज आंकड़ों के आधार पर ‘अपवर्जी नियम’ लागू कर राशनकार्ड तैयार किए गए हैं। बिहार के तकरीबन 80 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों का अब तक नया राशनकार्ड या अंत्योदय कार्ड बन चुका है।
पहली दफे लोग इस बात से आगाह हैं कि प्रति व्यक्ति प्रति माह पाँच किलो अनाज उन्हें सरकारी राशन की दुकान से मिलेगा। विपक्षी दल (भाजपा समेत!) अपना अधिकार पहचानने और मांगने के काम में लोगों की मदद कर रहे हैं। इन सारी बातों के कारण सरकारी व्यवस्था पर काम को पूरा कर दिखाने का भरपूर दबाव पड़ा है।
बिहार के चार जिलों में रैंडम पद्धति से चुने गए 1000 परिवारों पर केंद्रित एक सर्वेक्षण से पता चला है कि नया राशनकार्ड बनवा चुके ज्यादातर लोगों को सार्वजनिक वितरण प्रणाली से अपना अधिकार हासिल हो रहा है। बहुत सी अनियमितताओं के बावजूद बिहार की सार्वजनिक वितरण प्रणाली आज सुधार के उस मुकाम तक जा पहुंची है जिसके बारे में पाँच साल पहले सोच पाना तक मुश्किल था।
यदि शांताकुमार समिति की सिफारिशें मान ली जाती हैं तो बिहार में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने के इस सारे काम पर पानी फिर जाएगा और बिहार को फिर से उसी पुराने ढर्रे पर लौटना होगा जब बीपीएल (गरीबी रेखा से नीचे) परिवारों को लक्ष्य करके और लाभार्थियों का दायरा कम रखते हुए ऊंची कीमत पर सरकारी दुकान से राशन दिया जाता था।
आंकड़ों की अनदेखी
शांताकुमार समिति की रिपोर्ट से लगता नहीं कि उन्हें इस मुद्दे की ज्यादा समझ है। इस रिपोर्ट में नेशनल सैंपल सर्वे के एक अकटलपच्चु सर्वे के आधार पर सार्वजनिक वितरण प्रणाली में कटौती करने की सिफारिश की गई है।
शांताकुमार समिति ने भारत मानव विकास सर्वेक्षण की उस रिपोर्ट की अनदेखी की है जिसमें हाल के सालों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली में चोरबाजारी में आई कमी की बात कही गई है।
दूसरे, जिन राज्यों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुधारने के सतत और गंभीर प्रयास किए गए हैं उन राज्यों में चोरबाजारी के मामले बहुत ज्यादा घटे हैं। बिहार इसका नवीनतम उदाहरण है।
तीसरी बात यह कि चोरबाजारी के ज्यादातर मामले गरीबी रेखा से ऊपर वाली श्रेणी के लिए निर्धारित कोटे या फिर अस्थायी किस्म के कुछेक दूसरे कोटे से संबंधित है। साल 2011-12, में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के अंतर्गत हुए कुल आवंटन का लगभग 50 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं कोटों से संबंधित था।
राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के अंतर्गत चोरबाजारी की आशंका वाले ये कोटे समाप्त किए जाने वाले हैं और उनकी जगह सुयोग्य परिवारों के लिए पाँच किलो प्रति व्यक्ति प्रति माह वाला कहीं ज्यादा पारदर्शी तरीका अपनाया जाना है। चोरबाजारी को रोकने के लिए यह तरीका कहीं ज्यादा कारगर है।
सीमाएँ और भविष्य
ऊपर बताये गये उपायों से शांता कुमार समिति की कुछ सिफारिशों के मूल्यों का उल्लंघन नहीं होता। इनका ये मतलब नहीं कि राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के मौजूदा स्वरुप में कोई खामी नहीं है। असल बात यह है कि पीछे जाने से बेहतर है आगे बढ़ना।
अपनी खामियों के बावजूद राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, सार्वजनिक वितरण प्रणाली को दुरुस्त करने और उसे ज्यादा कारगर बनाने का मौका देता है।
बेहतर होगा कि केंद्र सरकार राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर अपना पक्ष साफ करे। अगर सरकार इसके विरोध में है तो उसे साफ बताना चाहिए।
अगर सरकार इसके विरोध में नहीं है तो उसे सामाजिक, आर्थिक एवं जाति जनगणना के आंकड़ों को जल्द तेजी के साथ जारी करना चाहिए, जिसकी वजह से कई राज्यों में कई काम रुके हुए हैं।
अगले बजट में केंद्र सरकार को मातृत्व लाभ के मद में भी कुछ आवंटन करना चाहिए क्योंकि इस अधिनियम के तहत यह कानूनी अधिकार है, या कहीं ऐसा तो नहीं कि इस मुद्दे पर भी भाजपा ने समर्थन का महज दिखावा भर किया था?
बीबीसी हिन्दी
(लेखक रांची विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग में विजिटिंग प्रोफेसर हैं)