न्यूयॉर्क में शाम के आठ बजने को थे. बादलों की वजह से धुंधलका सा छा रहा था लेकिन सूरज अभी डूबा नहीं था. शहर की सबसे बड़ी मस्जिद में मगरिब की नमाज़ के साथ-साथ इफ़्तार की तैयारी हो रही थी. रोज़े पर चल रहे दिनभर के भूखे-प्यासे मुसलमान मस्जिद पहुंचने लगे थे.
कोई दिन भर टैक्सी चला कर आ रहा था, किसी ने दिन भर रेस्तरां में ग्राहकों को खाना परोसा था. काले, भूरे, गोरे, पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, अरब, अफ़्रीकी, अमरीकी—इनमें से ज़्यादातर वो चेहरे थे जो शहर की भीड़ में तो होते हैं लेकिन न्यूयॉर्क की चमक से कोसों दूर नज़र आते हैं.
उसी मस्जिद के बाहर खड़ी थीं पुलिस की गाड़ियां और काली वर्दी में वहां चहलकदमी कर रहे थे न्यूयॉर्क पुलिस के छह सात अफ़सर.
उन्हें देखकर अख़बारों की वो सारी सुर्खियां मेरे ज़ेहन में कौंधने लगीं कि किस तरह न्यूयॉर्क पुलिस मुसलमानों और मस्जिदों पर नज़र रखती है, किस तरह मुसलमान पुलिस पर यकीन नहीं करते, किस तरह उनमें से कईयों को पुलिस रोककर पूछताछ करती है–इसलिए नहीं क्योंकि उन्होंने कोई गुनाह किया है बल्कि इसलिए क्योंकि वो मुसलमान हैं.
ऐसे में पुलिस के मुसलमान अफ़सरों के लिए वहां काम करना कितना मुश्किल है, क्या पुलिस महकमा उनपर यकीन करता है, क्या उनकी अपनी कौम उनपर यकीन करती है?
मुश्किल
ऐसे ही कुछ सवालों के साथ मैं वहां पहुंचा था एक टीवी शूट के लिए और वहां मेरी मुलाक़ात हुई न्यूयॉर्क पुलिस के छत्तीस-वर्षीय पाकिस्तानी मूल के अमरीकी मुसलमान ऑफ़िसर अदील राना से.
वो वर्दी में नहीं थे लेकिन उनके खड़े होने के अंदाज़ से, बातचीत के लहज़े से साफ़ ज़ाहिर हो रहा था कि वो पुलिस या किसी सेक्योरिटी एजेंसी के साथ हैं.
वुज़ू करने के लिए जब उन्होंने अपना जैकेट उतारा तो तो कमर में बंधी हुई सर्विस पिस्टल भी साफ़ नज़र आ रही थी. नमाज़ पढ़ते वक्त, तरबूज़ और खजूर के साथ रोज़ा तोड़ते वक्त वो उन्हीं लोगों के बीच में खड़े थे जिनपर उनका महकमा उन्हें नज़र रखने को कहता है.
कितना मुश्किल होता है ये उनके लिए?
उनका कहना था कि मज़हब उन्हें जीने के उसूल सिखाता है और नौकरी किसी और नौकरी की तरह ही है—दोनों में कोई टकराव नहीं है.
न्यूयॉर्क पुलिस के बचाव में उनका कहना था कि वहां हज़ार से ज़्यादा मुसलमान ऑफ़िसर हैं, रमज़ान के वक्त उन्हें हर तरह की सहूलियत देने की कोशिश होती है कि वो काम के साथ-साथ अपनी मज़हबी ज़रूरतें भी पूरी कर सकें.
पिछले साल तो वो ख़ुद हज के लिए भी गए थे और उनके अफ़सरों ने तो यहां तक कहा था कि चाहें तो वो वहां अपनी वर्दी भी पहन सकते हैं जिससे दुनिया को पता चले कि अमरीका की हिफ़ाजत मुसलमान ऑफ़िसर भी करते हैं.
लेकिन उनका कहना है कि विदेश विभाग ने ये कहते हुए मना कर दिया कि इस्लामिक स्टेट जैसे संगठन उन तस्वीरों का ये कहकर फ़ायदा उठा सकते हैं कि अमरीका अब मक्का-मदीना पर कब्ज़ा करने की फ़िराक में है.
डर
मस्जिद में ही मुझे मिले पाकिस्तानी गुजरात के एक साहब (नाम नहीं पूछ पाया) और उनका कहना था कि जिन देशों से लोग यहां आते हैं वहां भी पुलिस पर भरोसा नहीं किया जाता है और वही डर यहां भी बैठा रहता है.
कहने लगे, “मुझे यहां रहते पच्चीस साल हो गए. जिससे बात करो कहेगा कि मैं तो पाकिस्तान लौट जाऊँगा, क्या पता पुलिस किसी केस में न फंसा दे. लेकिन किसी को लौटते न देखा न सुना.”
ज़ाहिर है अदील राना न्यूयॉर्क पुलिस में रहते हुए उसके ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहने वाले थे, जो लोग वहां मौजूद थे वो भी कैमरे के सामने पुलिस के ख़िलाफ़ नहीं बात कर सकते थे.
इफ़्तार शुरू हो चुका था. खाने वालों की लंबी कतारें लग चुकी थीं. तभी एक कमरे में मेरी नज़र पड़ी उन्हीं वर्दीधारी पुलिस वालों पर जिन्हें मैने मस्जिद के बाहर खड़ा देखा था.
वो रोज़े से नहीं थे, मुसलमान नहीं थे, दुनिया की नज़रों में मुसलमानों के ख़िलाफ़ थे. लेकिन मस्जिद में ही काम करने वाला एक शख्स उन्हें बड़ी इज़्ज़त से खाना खिला रहा था और वो भी बेफ़िक्र होकर खा रहे थे.. कैमरा देखकर सभी थोड़े से सकपकाए और फिर मुस्करा दिए.
अदील राना ने थोड़ी देर पहले मुझसे कहा था—यकीन एक रात में नहीं कायम होता है. आप हम पर यकीन करें, हम आप पर यकीन करें तो आगे बढ़ने का रास्ता ज़रूर निकल आएगा. उनकी बातों में ईमानदारी झलक रही थी, उन बातों पर यकीन करने का भी दिल चाहा, लेकिन पता नहीं क्यों कर नहीं पाया.
News Courtesy BBC HINDI