हरियाणा के अटाली में मुसलमानों का गांव लौटना अच्छी ख़बर है. लेकिन क्या यह ख़बर रहेगी?
मीडिया ने मुसलमानों के वापस होते ही अटाली से अपनी नज़र हटा ली है. मानो अब कुछ रिपोर्ट करने लायक बचा ही नहीं.
जबकि हाल के साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में यह पहली बार हुआ है कि हिंसा के कोई दस दिनों के भीतर ही घरबार छोड़ भागने को मजबूर लोग वापस अपनी जगह आ गए हों.
यह सिर्फ बाहरी और प्रशासनिक दबाव से हुआ हो, ऐसा नहीं. हालांकि प्रशासन यह चाहता ज़रूर था और मुसलमानों पर इसके लिए दबाव डाल रहा था.
साहस
थाने में तकरीबन पांच सौ मुसलमानों के बने रहने से कोई अच्छी ख़बर तो बन नहीं रही थी. जितने दिन यह जारी रहता, उतने ही दिन राज्य और केंद्र सरकार की तस्वीर मीडिया में बिगड़ती जाती.
जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे, वहां जानेवाले जांच दलों और अन्य लोगों की तादाद बढ़ रही थी और राजनीतिक रूप से यह केंद्र और राज्य के लिए नुकसानदेह साबित हो रहा था. आख़िर दोनों ही जगह भारतीय जनता पार्टी की सरकार है.
मुसलमानों की वापसी को उनकी मजबूरी की जगह उनके साहस के तौर पर भी देखने की आवश्यकता है.
वे उन लोगों के बीच फिर जा रहे हैं जिनकी हिंसा के वे शिकार हुए थे. एक तरह से वे मानकर जा रहे हैं कि हिंसक लोगों के भीतर छिपी इंसानियत को जगाया जा सकता है और उन पर भरोसा किया जा सकता है.
एक और अवसर
इस तरह अटाली के मुसलमान अपने हिन्दू पड़ोसियों को अपनी मानवता साबित करने का एक अवसर भी दे रहे हैं.
गांव में इसे लेकर शर्मिंदगी नहीं तो झेंप थी कि यह वारदात हो गई.
सरपंच राजेश प्रधान वक्ती उत्तेजना और विरोध के बावजूद अपने समुदाय के लोगों को समझदारी से काम लेने के लिए समझा रहे थे.
यह आसान नहीं है, अगर आप याद करें कि टिकैत बंधु मुज़फ्फरनगर में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के पक्ष में नहीं थे, लेकिन ‘जन भावना’ को देखते हुए कुछ बोल ही ना पाए.
हिन्दू-मुस्लिम साथ-साथ
अटाली में राजेश प्रधान के अलावा और लोग भी हैं, खासकर बुजुर्ग, जो मेलजोल के हामी हैं. तो कहा जा सकता है कि अटाली में वह आधार मौजूद है जिस पर हिन्दू-मुस्लिम सहजीवन की इमारत को मजबूती दी जा सकती है.
यह मीडिया,राजनीति, शिक्षा, प्रशासन, सब के लिए एक अवसर है और चुनौती भी. क्या हम इसे ठीक से कबूल कर पाएंगे?
अटाली में जो गौर से देखा जाएगा, वह यह कि ‘शांति’ की क़ीमत कहीं इंसाफ से तो नहीं चुकाई जा रही है! क्या जो मामले दर्ज कराए गए हैं, उन पर कार्रवाई होगी या उन्हें माकूल वक्त के इंतज़ार में ठंडे बस्ते में डाल दिया जाएगा?
क्या मस्जिद के प्रति जो विरोध है, वह दबाव के कारण खामोश हो जाएगा और फिर कभी भड़क उठेगा या इस मौके का लाभ लेकर ऐसी प्रक्रिया शुरू की जा सकती है कि गांव के हिंदू उसे अपना ही धर्म-स्थल समझकर उसके निर्माण में खुद सहयोग करें?
मुस्लिम-घृणा प्रचार
अगर बिहार में मुसलमान मंदिर के लिए ज़मीन दे सकते हैं तो अटाली में हिंदू मस्जिद बनाने में हाथ क्यों नहीं बंटा सकते?
इस अवसर को हाथ बढ़ाकर स्वीकार करने की ज़रूरत है. कुछ काम शुरू में ही किए जा सकते हैं.
गांव के लोग ही तबाह कर दिए गए घरों और संपत्ति का ईमानदारी से आकलन कर मुनासिब मुआवज़े के लिए प्रशासन पर दबाव डाल सकते हैं.
मुआवज़ा ईर्ष्या का कारण बन जाता है. अक्सर देखा गया है कि बहुसंख्यक समुदाय चाहता ही नहीं कि पीड़ितों को मुआवजा मिले. अटाली में इसे उल्टा जा सकता है.
हरियाणा में मुस्लिम-घृणा प्रचार सुनियोजित तरीके से चलाया जा रहा है.
हिंदुत्वकरण का भी चतुर अभियान चल रहा है. समाज में पहले से मौजूद हिंसा इसके लिए सहारा बन जाती है.
यह हिंसा अक्सर दलितों के ख़िलाफ़ भी उतने ही विकट रूप में प्रकट होती है.
आत्मावलोकन, आत्मपरीक्षण और आत्मशुद्धि
हिंसा के सामुदायिक ‘स्वभाव’ को नियोजित हिंसा की शिक्षा और मज़बूत करती है. क्या इसके उलट कोई सामाजिक शैक्षिक अभियान नहीं चलाया जा सकता?
जामिया मिलिया इस्लामिया का शांति-अध्ययन केंद्र क्या इसे अपने एक कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं कर सकता? क्या हमारे विश्वविद्यालयों के ‘सोशल-वर्क’ विभाग इसमें अपने छात्रों और शिक्षकों को नहीं लगा सकते?
अगर हमने हिंसा के विरुद्ध शिक्षा को एक सचेत कार्यक्रम नहीं बनाया और हिंसा-अभियान के आगे असहाय बैठे रहे तो अटाली जैसी वापसी अपवाद ही बनी रहेगी और हिंसा आशंका नहीं हमेशा की हक़ीक़त बनी रहेगी.
अटाली हम सबके लिए एक मौक़ा है, एक संभावना: आत्मावलोकन, आत्मपरीक्षण और आत्मशुद्धि का भी. ये सारे शब्द गांधी-कोश के हैं, हम याद रखें.