कोहराम न्यूज़ के लिए विशेष इंटरव्यू
सोशल मीडिया से लेकर मेन स्ट्रीम मीडिया में बहुत से ऐसे लेखक है जो शोषित, अल्पसंख्यकों, दलितों और महिलाओं के लिए आवाज़ उठा रहे हैं, उन्हीं में से एक नाम है वसीम अकरम त्यागी. बहुत कम लोग जानते होंगे की वसीम अकरम त्यागी ने छोटी सी उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था। ऐसे समय में जब युवा समाज की बुराइयों को नुक्कड़ के टी स्टाल पर विचार विमर्श करके चुस्की मारते हुए अपने घर चल देते है वहीँ वसीम जैसे पत्रकार उन मुद्दों को ना सिर्फ बेबाकी से उठाते रहे है वरन धरातल पर काम करने का जज्बा भी रखते है.
जैसा की होता है की सच बोलना किसी ना किसी पक्ष के लिए कड़वा होता है वैसे ही वसीम अकरम त्यागी को समय समय पर निशाना भी बनाया जाता रहा है लेकिन अपने विरोधियों के सामने घटने ना टेकने वाले वसीम पूरे जज्बे के साथ समुदाय की बात को कहने की हिम्मत रखते है.
आइये उनसे मिलकर जानते है कुछ उनके बारे में
सवाल – कुछ अपने बारे में बताएं, अपने कहा से शिक्षा ली, कहाँ कहाँ नौकरी की?
जवाब – अपने बारे में बताने के लिये ज्यादा नहीं है, मेरठ के एक छोटे से गांव हूं और किसान का बेटा हूं। किसान के घर में पैदा होने वाले बच्चों की अक्सर कोई दास्तान नहीं हुआ करती, उन्हें होश संभालते ही पिता के साथ खेती के काम में पिता का हाथ बंटाना पड़ता है।
सवाल – पत्रकारिता के क्षेत्र में कैसे आना हुआ?
जवाब – अब्बू चाहते थे कि मैं डॉक्टर बनूं, मगर मैं सेना में जाना चाहता था लेकिन जिंदगी कुछ और काम लेना चाहती थी। वह 8 अगस्त 2007 की सुब्ह थी मैं सुब्ह अपने ट्यूशन पढ़ने के लिये करीबी कस्बे में जा रहा था, अभी घर से कोई सौ मीटर ही चला था कि मेरी आंखों ने एक हादिसा होते देखा, हादसा यह था कि हमारे ही पड़ोस का एक लड़का भैंसा बुग्गी लिये जंगल जा रहा था, अचानक भैंसा बिदक गया जिससे बुग्गी में सवार वह लड़का रास्ते जमीन पर बेसुध होकर गिर गया, मैं कुछ कदम की दूरी पर था, वह जमीन पर गिरा पड़ा था और उसके ऊपर आहिस्ता आहिस्ता बुग्गी पलट रही थी मैंने दौड़ कर उसे वहां से धकेल दिया, मगर मेरा बायां हाथ बोगी की चपेट में आ गया जिसकी वजह से मेरी बायें हाथ की एक उंगली बोगी के नीचे आकर शहीद हो गई। हथेली की सर्जरी हुई, और इसी के साथ सेना में जाने का मेरा ख्वाब चकनाचूर हो गया। फिर मैंने तय किया कि मुझे पत्रकार बनना है, मेरे दादा अक्सर बीबीसी सुनते थे और मैं बीबीसी पर खबर पढने वाले समाचार वाचक की मिमिक्री किया करता था, मुझे लगा कि पत्रकार बनकर मैं भी ऐसे ही खबर पढा करुंगा।
सवाल – आपको कैसा लगता है जब आपको मुस्लिम समुदाय की बात कहने वाली बुलंद आवाज़ समझा जाता है ?
जवाब – बुलंद आवाज तो नेताओं की हुआ करती है, और हम पत्रकारो की आवाजें उन्हीं के नक्कारखाने में तूती की तरह दबकर रह जाती है। मेरे दोस्त मौलाना मूसा कासमी एक दिन मेरे साथ सफर कर रहे थे, बीबीसी से एक दोस्त का फोन आया कि एक सीनियर पत्रकार मुझसे बात करना चाहते हैं, उन्होंने मुझसे बात की मुझे सराहा ये मेरे लिये खुशी की बात थी, मैंने मूसा भाई से बताया कि तो उन्होंने तपाक से कहा कि अब ये पुरानी खबर हैं, इसमें चौंकाने वाला कुछ नहीं है हम तो बहुत पहले से ही कहते आ रहे हैं कि तुम आवाज हो। जब लोग कहते हैं तब खुशी भी होती है और जिम्मेदारी का अहसास भी होता है।
सवाल – मुज़फ्फरनगर दंगो के समय आपने काफी साहसी कार्य किया उस बारे में बताएं, तथा विस्थापितों की अब क्या स्थिति है ?
जवाब – मुजफ्फरनगर बहुत भयावह था, दंगे के बाद महीनो तक मुजफ्फरनगर के ग्रामीण क्षेत्र में चारों तरफ उन लोगों के शिविर नजर आते थे जिन्हें उनके ही क्षेत्र में मुहाजिर कर दिया गया था। हमने दवाईयां, राशन, कंबल वितरित किये और ईद उल अजहा पर उन्हीं शिविरो में कुर्बानी कराई हमने उस वक्ती मदद के बाद उन ब्चचों पर ध्यान दिया जिनकी बोर्ड की परीक्षाऐं थीं मगर विस्थापन की वजह से उनके सर पर परीक्षा छूटने का डर सता रहा था, हमने जिलाधिकारी मुजफ्फरनगर, और बीएसए से मिलकर उन छात्र छात्राओ का दोबार एडमिशन कराया। जमीयत उलमा ऐ हिन्द वहां पर बहुत सराहनीय काम किया विस्थापितों को मकान दिये उनकी बेटियों की शादी कराई, पूर्व विदेश राज्यमंत्री ई अहमद ने बहुत सरहानीय काम किया, स्कूल बनवाया, कॉलोनी बनवाई, उनकी पार्टी के नेता खुर्रम अनीस उमर से मेरे जाती ताअल्लुकात थे जिसकी बदौलत मुजफ्फरनगर के विस्थापितों को बसाने में आसानी रही। आज भी नई बनाई गईं कॉलोनियों में गंध फैली हुई है, पानी की निकासी के रास्ते नहीं है, सड़को की हालत बहुत खस्ता है, दंगे के बाद से रोजगार पर बहुत असर पड़ा है समाजिक संगठनो ने दंगा पीड़ितो को कॉलोनियां बनाकर तो दे दीं, मगर अब ज्यादातर मकान ऐसे हैं जिन पर ताले लटके हुऐ हैं क्योंकि रोजगार के लिये वे लोग वहां से पलायन कर गये। यूपी सरकार जिस विकास के मॉडल को दिखा रही है इस मॉडल की पहुंच उन कॉलोनियों से दूर है जहां पर अपने ही इलाकों में मुहाजिर किये गये लोग रहते हैं।
सवाल- कुछ लोगो का कहना है की आपका रुझान किसी पार्टी विशेष की तरफ है ?
जवाब – मैं पत्रकार हूं किसी पार्टी का नेता नहीं, हां समाज के काम कराने के लिये राजनीतिक लोगो से भी मिलना जुलना पड़ता है, मगर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं निकाला जा सकता हम जिस पार्टी के नेता से मिल रहे हैं उसके प्रति हम नर्म हैं। ऐसा नहीं हैं, ये बेबुनियाद है। हमारा काम निष्पक्षता से बेबाक होकर अपनी राय रखना जाहिर उससे किसी एक दल के समर्थकों को तकलीफ होगी और वे तर्कहीन होकर आरोप लगा देते हैं। जैसे इस वक्त अगर आप केन्द्र सरकार की आलोचना करेंगे तो आप पर कांग्रेसी होने का आरोप लगेगा, और उत्तर प्रदेश सरकार की आलोचना करते हैं तब किसी दूसरे का होने का आरोप लगाकर पल्ला झाड़ लेना आसान रहता है।
सवाल – मुस्लिमो की बदतर स्थिति का ज़िम्मेदार आप किसे मानते है ?
जवाब – अशिक्षा, समय – समय पर होने वाले सांप्रदायिक दंगे, पहले सुनियोजित तरीके से दंगाईयो ने उन शहरों पर धावा बोला जहां पर मुसलमानो की इंडस्ट्री थी, मसलन, अलीगढ, मुरादाबाद, मेरठ और अब मुजफ्फरनगर ये ऐसे शहर हैं जहां पर मुसलमानों की इंडसट्रीज थी, अलीगढ़ के ताले, मेरठ की कैंची, मुजफ्फरनगर का सरिया, मगर ये सब सांप्रदायिक दंगो की भेंट चढ़ गया। अब मुसमलानों के सामने दो चीजें थीं वे या तो रोटी को चुनें या फिर किताब को और इस जंग में उन्होंने रोटी को चुन लिया। राजनीतिक पार्टियां सांप्रदायिक दंगों को रोकने में नाकाम साबित रहीं, साथ तथाकथित सेकुलर पार्टी मुसलमानों को पार्टी विशेष का डर दिखाकर वोट हड़पती रहीं, नतीजा यह हुआ कि मुसलमानों के पास कोई मुद्दा ही नहीं हुआ और वे डिफेंस मोड में वोट करते चले आये। मुस्लिम आरक्षण की मांग बहुत पुरानी है मगर किसी भी राजनीतिक दल ने अलावा इस पर राजनीति करने कुछ और किया ही नहीं।
सवाल – क्या आपको लगता है सोशल मीडिया पर मुस्लिमो की बात करने से स्थिति बदल सकती है ?
जवाब – मीडिया हो या सोशल मीडिया ये सिर्फ मुद्दो, और समस्याओं से परिचित कराती हैं, स्थिति बदलने के लिये जमीन पर उतरकर काम करना पड़ता है।
सवाल – आपकी नज़र में आपके अलावा और कौन लेखक मुस्लिमो की आवाज़ बनने का माद्दा रखते है?
जवाब – बहुत लोग हैं, जो सोशल मीडिया पर लिख रहे हैं, मजे की बात ये कि वे अच्छा लिख रहे हैं। अली सोहराब, मोहम्मद जाहिद, नवेद चौधरी, फैजान जैदी, नदीम अख्तर, असद शेख, रजिया अंसारी, फरहीन नफीस, फरहाना रियाज, निशात इमरान, तारिक अनवर चंपारनी, राहिल हसी, मेहदी हसन ऐनी, अशरफ हुसैन ये चंद लोग हैं मगर इनके अलावा भी बहुत लोग हैं जो बहुत अच्छा लिख रहे हैं।
सवाल – आपको ओवैसी विरोधी के रूप में भी प्रचारित किया जाता है इस बारे में आपका क्या कहना है ?
जवाब – मैं किसी भी पार्टी या व्यक्ति विशेष का विरोधी नहीं हूं, दरअस्ल मैं नेता को सिर्फ नेता मानता हूं मैं उससे तवक्को नहीं करता कि असद हैं तो इनसे सवाल नहीं पूछा जाना चाहिये, लोकतंत्र में सवाल नेता से ही पूछा जाता है। सपाई कहते हैं कि मैं सपा का विरोधी हूं, बसपा वाले अपना विरोधी मानते हैं, यही हाल कांग्रेस और भाजपा का है।
सवाल – अपने विरोधियों से क्या कहना चाहेंगे?
जवाब – विरोधी, विरोधी तो कोई है ही नही । जब हम सपा से कहते हैं कि उन्होंने मुसलमानों से आरक्षण का वादा किया था उसका क्या हुआ तब सपाई कहते हैं कि हम विपक्षी पार्टी वाले हैं, वे भूल जाते हैं कि पत्रकार का तो काम ही है कि वह हमेशा ‘विपक्ष’ रहे।
सवाल – आजकल सोशल मीडिया के ज़रिये बहुत से नए लेखको का उदय हो रहा है उन्हें क्या सलाह देना चाहेंगे ?
जवाब – अच्छा लिखें, खुले दिमाग से लिखें, बायस्ड होकर न लिखें, जज्बात मे बहकर न लिखें। अगर अत्याचार मुसलमान पर हो रहा है तो यह सोचकर न लिखें कि वह मुसलमान है बल्कि यह सोचकर लिखें कि वह इंसान भी है। हर तरह के अत्याचार के खिलाफ लिखें, शोषण के खिलाफ लिखें, अपने अधिकारों की प्राप्ती के लिये लिखें।
सवाल – कोहराम न्यूज़ के पाठकों के लिए कोई सन्देश
जवाब – कोहराम आज इंटरनेट की टॉप टेन पोर्टल में शुमार है, और यह सब बीते दो साल में हो पाया है, ये सब उन पाठकों की बदौलत हुआ है जो कोहराम से जुड़े हैं, मैं उम्मीद करता हूं कि आगे भी वह ऐसे ही कोहराम के साथ जुड़े रहेंगे। राही मासूम रजा ने कहा था कि –
खुद के पैदा किये सूरज से उजाले मांगो
भीख मांगी हुई किरणों का भरौसा क्या है ?