संयोग से यह पूरा क्षेत्र पटेलों का गढ़ है, और बताया जाता है कि पाटीदार कृषक समुदाय ने, जो पारंपरिक रूप से भाजपा का समर्थक रहा है, कई क्षेत्रों में मतदान का बहिष्कार किया था। भूलना नहीं चाहिए कि मोदी सरकार के खिलाफ किसानों का गुस्सा बिहार चुनाव में भी देखने को मिला। गुजरात के कपास उत्पादकों ने न्यूनतम समर्थन मूल्य बढ़ाने के लिए आंदोलन किया, लेकिन केंद्र की तरफ से उन्हें जो मिला, वह काफी कम है। वर्ष 2011-12 तक किसानों को 7,000 रुपये प्रति क्विंटल न्यूनतम समर्थन मूल्य मिला था, लेकिन इस साल इसे घटाकर 4,050 रुपये कर दिया गया।
मई, 2014 में भाजपा ने अपने घोषणापत्र में वायदा किया था कि वह किसानों को उनके कुल लागत खर्च पर पचास फीसदी मुनाफा देगी, पर स्थिति यह है कि किसानों का लागत-खर्च भी मुश्किल से निकल पाता है। ऊपर से सूखे ने उनकी कमर तोड़ दी है। भाजपा के घोषणापत्र में यह भी कहा गया था कि किसानों को अस्थिर वैश्विक कीमतों से बचाने के लिए एक कोष बनाया जाएगा, ताकि कीमतों के उतार-चढ़ाव से वे बचे रहें। पिछले वर्ष और इस साल की शुरुआत में कपास के मूल्यों में 40 फीसदी की गिरावट आई। पर सरकार ने प्रतीकात्मक रूप से मात्र 400 करोड़ रुपये का कोष बनाया, जो पर्याप्त नहीं है।
किसान याद करते हैं कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तब किसानों को कपास का लाभकारी मूल्य दिलाने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को नियमित पत्र लिखा करते थे। ऐसा लगता है कि प्रधानमंत्री बनते ही वह अपने राज्य के किसानों को भूल गए हैं। ऐसे में आश्चर्य नहीं कि भाजपा उस वडानगर पंचायत में भी हार गई, जहां के खुद मोदी हैं।
विकट कृषि संकट गुजरात के ग्रामीण इलाकों में भाजपा की हार का प्रमुख कारण है। राष्ट्रीय स्तर पर यह भाजपा के लिए खतरे की घंटी है। पंजाब के किसान पहले से ही क्षुब्ध हैं और वहां कुछ समय से एक बड़े आंदोलन की जमीन तैयार हो रही है। यही हाल उत्तर प्रदेश, खासकर पश्चिम उत्तर प्रदेश में है, जहां जाट समुदाय के मझोले किसान काफी आक्रोशित हैं। लोकसभा चुनाव में उन्होंने भाजपा को वोट दिया था, पर अगली बार वे शायद ही ऐसा करें। यहां के एक बड़े किसान ने इस लेखक को बताया कि उन्होंने अपने बेटे को तकनीकी शिक्षा दिलाने के लिए करीब पांच लाख रुपये किसान क्रेडिट कार्ड के जरिये उधार लिया। वहां ऐसी कहानी आम है। उत्तर प्रदेश के पंचायत चुनाव के नतीजे से भी यह स्पष्ट है, क्योंकि बसपा ने वहां अच्छा प्रदर्शन किया है।
बिहार के चुनाव में दाल की कीमत एक बड़ा चुनावी मुद्दा बनी थी। आशंका है कि मार्च-अप्रैल में रबी की फसल तैयार होने पर दाल का उत्पादन घटेगा। महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के ज्यादातर दाल उत्पादक क्षेत्र सूखे से जूझ रहे हैं और अनुमान है कि रबी की फसल तैयार होने पर 2016 में दाल का उत्पादन 1.7 करोड़ टन से घटकर 1.55 करोड़ टन रह जाएगा।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2020 का दालों का उत्पादन दो करोड़ टन तक पहुंचाने की बात की है। इसके लिए सरकार को एक अभियान चलाकर कृषि पर ध्यान केंद्रित करना होगा। किसान अब भाजपा के घोषणापत्र में किए वायदों के पूरे होने का इंतजार कर रहे हैं। कुछ राज्यों के विधानसभा और पंचायत चुनाव में मतदान के जरिये उन्होंने अपना संदेश भी दे दिया है। गुजरात पंचायत चुनाव का जनादेश भाजपा के लिए ऐसा ही संदेश है।
संसद के मौजूदा सत्र के पहले हफ्ते में हमने देखा कि लोकसभा में शून्यकाल के दौरान विभिन्न दलों के सांसदों ने कृषि संकट का मुद्दा उठाया। एक सांसद ने तो राष्ट्रीय कृषि आयोग के गठन की मांग की, ताकि खेती को मौजूदा संकट से निकालने के लिए व्यापक रणनीति बनाई जाए। ऐसा लगता है कि कृषि में मेक इन इंडिया की तत्काल शुरुआत होनी चाहिए।