मैं किसके हाथ पे अपना लहू तलाश करुं

वसीम अकरम त्यागी

कुवैत की मस्जिद धमाका हुआ डेढ़ दर्जन लोग मारे गये, मारने वाले और मरने वाले भले ही अलग समुदाय और अलग धर्म के मानने वालों हों मगर एक पहचाना जो मिटकर भी नहीं सकती और इन दोनों को एक साथ लाकर खड़ी कर देती है वह है इनका इंसान होना।यकीनन यह वहशियाना काम काबिल ए मजम्मत है, इसे भले ही आप किन्हीं भी अल्फाज से मुखातिब करें मगर ये इंसानी त्रासदी है।सोशल मीडिया पर कुवैत की खून से सनी तस्वीरें वायरल हो रहीं है, और इन फोटो को शेयर करना वाले मुस्लिम युवा वर्ग इस हमले की अपने – अपने शब्दों में अपने अपने तरीके से निंदा कर रहे हैं।

लगभग सभी लोग इसे गैर इस्लामी करार दे रहे हैं, सवाल यहीं से पैदा होता है कि क्या आतंकवाद का कोई धर्म होता है ? अगर धर्म नहीं होता है तो फिर उसके साथ में इस्लाम को क्यों घसीटा जाता रहा है ? और अगर धर्म होता है तो फिर वह कौनसा धर्म है जहां सिर्फ आतंक सिखाया जाता है ? मस्जिदों में नमाज पढ़ते हुए नमाजियों को मारना सिखाया जाता है, जहां स्कूल जाते बच्चों को मारना सिखाया जाता है। कहीं भी अगर कोई आतंकी वारदात होती है सबसे पहले मुसलमान यह चीखना शुरु कर देते हैं, कि आतंकवाद का इस्लाम से कोई रिश्तान ही है।

एक साजिश के तहत इस्लाम को आतंकवाद से जोड़ दिया गया और मुसलमान सफाई देते रहे। निंदा करना और सफाई देना दोनों अलग – अलग चीजें हैं, जहां आप निंदा करते हैं वहां आप बाकी लोगों की तरह यह सबूत देते हैं कि आपको वह घटना पसंद नहीं है, मगर जहां आप सफाई देने शुरु कर देते हैं वहां पर लोग खुद ब खुद आपकी तरफ देखने लगते हैं। मुसलमान इस निंदा और सफाई के फोबिया को समझ नहीं पा रहा है, भारतीय मीडिया ने भी एसे चेहरे तलाश कर रखे हैं जो शक्ल ओ सूरत से मुसलमान नजर आते हैं, पहले ब्रेकिंग में उनसे फोनो कराया जाता है, फिर शाम को पैनल पर बुलाया जाता है, फिर अखबारों में बयानात कि यह घटना निंदनीय है, इस्लाम का आतंकवाद से कोई रिश्ता ही नहीं है।

मीडिया के जो लोग यह सवाल करते हैं कि क्या इस्लाम आतंकवाद सिखाता है वह खुद उसका उत्तर जानते हैं कि इस्लाम में आतंक लिये कोई गुंजाईश नहीं है, मगर फिर भी यह सवाल किया जाता है। ताकि गाहे बगाहे प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से उंगलियां मुसमलानों की तरफ उठाई जा सकें। वे जानते हैं कि आतंकवादी घटनाओं का सबसे ज्यादा शिकार मुसलमान हुए हैं, और आतंकवाद के नाम सबसे ज्यादा उन्हें ही सताया गया है। मगर फिर भी सवाल मुसलमानो से किया जाता है। क्या कभी किसी ने यह सवाल करने की जहमत उठाई कि आखिर इन आतंकवादियों की जरूरतें कहां से पैदा होती हैं ?

जब ये घायल अथवा बीमार होते हैं तब इनका इलाज कहां होता है ? इनको हथियार कहां से उपलब्ध होते हैं ? अजीब विडंबना है उन देशों में आतंकवादी वारदातें हो रही हैं जिनके हथियार बनाने के संसाधन ही नहीं है। सवाल फिर यहीं से पैदा हो रहा है कि जब वे देश हथियार नहीं बनाते तो आतंकियों के पास हथियार कहां से आते हैं कौन है जो उन्हें हथियार उलब्ध कराता है।

आतंकी हमलों में मर भी मुसलमान रहे हैं और सवाल भी उनसे किया जा रहा है। ताकि वह यह सवाल ही न कर सके कि आखिर मारने वाले कौन थे और उन्हें क्यों मारा दिया गया ? कातिल कौन थे ? कसूरवार कौन थे ? साजिश कर्ता कौन थे ? उनको ट्रेनिंग कहां दी गई ? उनको हथियार कहां दिये गये ? वे यहां तक पहुंचे कैसे ? एक वैश्विक समस्या से मुसलमान जूझ रहे हैं उन्हें अपने कातिल की तलाश है और पश्चिमी मीडिया ने सारी दुनिया में उनकी छवी कातिल की बना दी है।

  • मैं किसके हाथ पे अपना लहू तलाश करुं
  • तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने।

(वसीम अकरम त्यागी )

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