मुनव्वर राना के बहाने, इस जंग में हारे हुए कहलाओगे तुम ही

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मुनव्वर राना के साथ सोशल मीडिय पर जो हो रहा है यह वही ‘कारनामा’ है जो मोदी को ‘हिंदू’ बनाता है, और मुनव्वर राना को ‘मुसलमान’ बनाता है। मगर क्या यह लड़ाई हिंदू या मुसलमान की है ? क्या मामला सिर्फ अखलाक की मौत का है ? फिर बाकी जो हत्याएं हुईं हैं उनके क्या मायने रह जाते हैं ?

साहित्य अकादमी आवार्ड पाने वालों और लौटाने वालों में मुनव्वर राना एसा अकेला नाम है जिन्हें मोदी सरकार आने के बाद यह आवार्ड मिला था। इनके अलावा जो दूसरे साहित्यकार हैं उन्हें भाजपा सरकार आने से पहले आवार्ड मिला था। इसीलिये उन पर भाजपा की तरफ से वामपंथी या कांग्रेसी होने के आरोप लगाये जा रहे थे। मुनव्वर राना पर भी यह आरोप लगाये गये, उनकी सोनिया गांधी पर लिखी नज़्म ‘मैं बड़े बूढ़ों की खिदमत के लिये आई थी, कौन कहता है हकूमत के लिये आई थी’ को आधार बनाकर आरोप लगाये गये। मगर जब उन्होंने कहा कि तरूण विजय से उनके दोस्ताना संबंध रहे हैं, और उन्होंने आरएसएस के ऑफिस में नमाज़ें तक अदा की हैं, तब संघियों की बोलती बंद हो गई। राकेश सिन्हा कहने लगे कि आप प्लीज आवार्ड न लौटायें, जबकि दो दिन पहले संबित पात्रा एक टीवी चैनल पर मुनव्वर राना पर हमलावर होने की कोशिश कर रहे थे।

मुनव्वर राना के आवार्ड लौटाते ही सरकार बैकफुट पर आई, सरकार के नुमाईंदों को लगा कि अब तीर से कमान से निकल चुका है। मुनव्वर राना को वापस लाया जाये क्योंकि मुनव्वर राना को किसी राजनीतिक पार्टी से जोड़ा ही नहीं जा सकता। फिर प्रधानमंत्री कार्यालय से फोन आया, बकौल मुनव्वर राना उन्होंने कहा कि मैं अकेला तो नहीं आऊंगा सब साहित्यकारों को बुलायेंगे तो मैं भी आ जाऊंगा, अकेला जाऊंगा तो लोग कहेंगे कि शायद कुछ ‘ले’ लिया। इस 63 साल की उम्र में किसके लिये लुंगा।

हमारी समस्याओं का हल निकाला जाये, देश में बढ़ रही इस असिहष्णुता पर लगाम लगाई जाये। मैं उस देश का नागरिक हूं जिसका प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी है अगर मैं अपनी समस्याएं प्रधानमंत्री से न कहुंगा तो फिर किस देश के प्रधानमंत्री से कहुंगा। सोशल मीडिया पर जो लोग कुछ दिन पहले मुनव्वर राना जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे उन्हीं में से कुछ लोग मोदी का नाम सुनकर ‘बिदक’ गये। और मुनव्वर राना पर हमलावर हो गये। जो लोग मुनव्वर राना पर आरोप लगा रहे हैं क्या वे सिर्फ हंगामा चाहते हैं या फिर इस सूरत को बदलना चाहते हैं। दादरी कांड के वक्त मुनव्वर राना कतर में थे उन्होंने अपने ट्वीटर पर अखलाक की हत्या को आतंकवादी घटना करार दिया था। जिसके नतीजे में उन्हें भाजपा के साईबर गुंडों से भद्दी गाली सुनने को मिलीं थी। जब एक साहित्यकार की अभिव्यक्ति की आजादी छीनने की कोशिश की जा रहीं थीं उस वक्त वे लोग कहां थे जो आज राना पर हमलावर हुए जा रहे हैं ? सोशल मीडिया पर भी दो तरह के लोग हैं एक वे हैं जो बदलाव चाहते हैं और दूसरे वे हैं जो सिर्फ हंगामा चाहते हैं।

उनमें एक विशेष जमात एसी है कि वह मोदी को सिर्फ ‘हिंदू’ देखना चाहती, वहीं राना को भी सिर्फ ‘मुसलमान’ देखने वालों की भी कमी नहीं है। वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत ने लिखा था कि सम्मान वापस करने वालों ने यह माहौल बना दिया है कि जो साहित्य अकादमी का सम्मान वापस नहीँ करेंगे या लेंगे वे वर्तमान मोदी सरकार के समर्थक या मौन समर्थक मान लिये जायेगे। यह शायद किसी भी या अधिकतर रचनाकारों को गवारा न होगा। उन्होंने कुछ चुभते हुए सवाल भी उठाये और लिखा कि क्या मोदी सरकार की नीतियों के प्रति विरोध दर्ज कराने का यही एक रास्ता बचा है कि जिन लेखकोँ को साहित्य अकादमी सम्मान मिला है वे उसे वापस कर दे ? जिन्हें नहीं मिला वो अपना विरोध कैसे दर्ज करेंगे ? क्या किसी और ढंग से दर्ज किए जाने वाले विरोध को भी वही मान्यता मिलेगी जो सम्मान वापस कर के विरोध दर्ज करने वालो को मिल रही है ?

अब जब सरकार हरकत में आ ही गई है और लेखकों पर किसी पार्टी विशेष से जुड़े होने का आरोप भी लगाया नहीं जा रहा है तब मुनव्वर राना पर अपनी भड़ास निकालना कहां तक उचित है ? ‘मोदी की जूती’ उठाने वाले जिस मुहावरे पर मुवव्वर राना के खिलाफ जहर उगला गया उसे समझने की कोशिश ही नहीं की गई वह जुमला क्यों और किस उद्देश्य से कहा था ? आखिरकार मुनव्वर राना को फिर एक चैनल को साक्षात्कार में कहना पड़ा कि ‘जूती उठाने’ का मतलब सिर्फ और सिर्फ उनका (मोदी का) बड़े के तौर पर एहतेराम करने से है, ये कोई सियासी बात नहीं थी। हम सियासी आदमी हैं ही नहीं, हमारी हर बात को पार्टियों की सियासत से मत जोड़िए सियासी गुफ्तगू करनी हमको कभी नहीं आई। दरअस्ल सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा तबका जिसके लिये शायरी के मायने ‘मोदी मुर्दाबाद’ और वीर रस के मायने ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ ही हैं वह चाहता है कि बूढ़े हो चुके शायर/ साहित्यकार ‘उनकी’ भाषा बोलें और वह भाषा बिल्कुल वैसी ही हो जैसा कि वे बोलते हैं। उसी तरह मुनव्वर राना जैसे वरिष्ठ शायर को हिंदू मुस्लिम के खांचे में फिट करने की कोशिश की गईं। जिन लोगों ने मुनव्वर राना पर निशाना साधे उनके लिये राना का एक शेर याद आता है

इस जंग में हारे हुए कहलाओगे तुम ही
चाहो तो नुमाईश में मेरा सर भी लगा दो।

वसीम अकरम त्यागी

लेखक मुस्लिम टुडे के सह संपादक है

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