विकासशील देशों की आर्थिक नीतियों में कृषि तथा औद्योधोकीकरण में संतुलन बनाये रखना हमेशा से ही चुनौतीपूर्ण रहा है। जहाँ विभिन्न क्षेत्रों में उत्पादकता बढ़ाने और बढ़ती बेरोजगारी के हल के रूप में औद्योधोकीकरण की जरुरत है वहीँ दुसरे ओर बढ़ती खाद्यन्न जरूरतों को पूरी करने के साथ साथ एक बड़ी आबादी कृषि से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी हुयी है । ऐसे में औद्योधोकीकरण तथा आधारभूत ढांचे के विस्तार हेतु भूमि अधिग्रहण और जीवनयापन हेतु की जा रही कृषि के लिये कम पड़ रही जमीन ने अब संसद से सड़क तक एक नया मोर्चा खोल दिया है। संसद में असफल होने के बाद सरकार एक बार फिर अध्यादेश लाने की तैयारी कर रही है।
सरकार द्वारा लाया जा रहा भूमि अधिग्रहण अध्यादेश इसी असंतुलन का नतीजा है। मेक इन इंडिया का नारा देने वाली सरकार अब औध्योधिकीकरण की किसी ठोस योजना की अभाव में या चुनावी चंदे के दबाव में , भूमि अधिग्रहण कानून को कारपोरेट के पक्ष में आसान बना रही है और दूसरी और किसानो की सहमति को भी कुचल रही है।
2014 के कानून में सरकारी उपक्रमों हेतु 70: तथा निजी क्षेत्रों के लिए 80: सहमति जैसे प्रावधान निश्चित तौर से भूमि अधिग्रहण में लगने वाला समय बढ़ा देते थें लेकिन साथ ही साथ लोकतान्त्रिक मूल्यों को भी जीवित रखते हुए सामाजिक तथा आर्थिक न्याय का दरवाजा भी खोले रहते थें । लेकिन अब सरकार मौजूदा कानून से लोकतान्त्रिक तत्वों को अलग कर देने पर आमादा है । लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार का लगभग यही अलोकतांत्रिक रुख आइ टी एक्ट 66 ए पर भी देखने को मिला।
इसके पूर्व भी सरकारें ये काम करती रही हैं, आजादी के बाद से लगभग 5 करोड़ एकड़ भूमि का अधिग्रहण हो चूका है और लगभग 5 करोड़ लोग विस्थापित भी हुए हैं। जिनमे से कुछ को नाममात्र का मुआवजा मिला तो कइयों को कुछ भी नहीं मिला । इसके अलावा विस्थापन के साथ सामाजिक तथा सांस्कृतिक सवाल भी जुड़ा हुआ होता है । उदहारण के तौर पर खनन क्षेत्रों में भू अधिग्रहण से आदिवासी समूहों पर पड़ने वाला प्रभाव, उनके लिए अलग विस्थापन नीति को न्यायोचित ठहराता है । पूर्ववत सरकारों की तरह इस बार भी सरकार के पास कोई विस्थापन नीति नहीं है। जमींन की बाजार मुल्य कम आँके जाने के कारण दो गुना या चार गुना मुआवजा से भी आर्थिक अन्याय की स्थिति बनी रहती है सामाजिक क्षतिपूर्ति की तो बात ही छोड़िये।
दूसरी बार अध्यादेश ला रही सरकार अब खुली चर्चा की बात कह रही है ऐसे में देखना है ये है की सरकार किसानों की सहमति ,मुआवजे और विस्थापन नीति पर भी क्या रुख स्पष्ट करती है ।
अफ्रीका महाद्वीप में तंजानिया जैसे छोटे और गरीब देश में जमीन की कीमत आंके जाने के दौरान उससे होने वाली आय को भी आंकलन में शामिल किया जाता है । 2005 में उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तर प्रदेश के बांगर मऊ में भी इसी तरह से मुआवजे के लिए जमीन की कीमत आंकी गयी थी ।
तमाम संभावनाओं और उदहारण के होने के बावजूद सरकार की प्राथमिकता कारपोरेट को जल्दी से जल्दी जमीन मुहैया कराना है ऐसे में किसान को ऐसे कानून की जरूरत है जिससे वो अपना पक्ष स्वयं रख पाये।
अंशु शरण
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