बाबरी मस्जिद नाम है एक ज़ख्म का – जो आज भी हरा है, एक घाव का – जो आज भी रिस रहा है, एक धोखे का – जो इसी के नाम पर सुप्रीम कोर्ट को दिया गया था और यह नाम है एक मस्जिद का, जिसे बाबर ने नहीं बनाया था, मगर जिसे बाबर से मंसूब कर के बाबर के नाम से की जा रही सारी नफरत, सारा आक्रोश, सारी धर्माधता को इसी मस्जिद पर उंडेल कर जिसको 6 दिसम्बर को शहीद कर दिया गया बाबरी मस्जिद का शहीद होना या ध्वस्त होना मुसलमानों की या इस्लाम की शिकस्त नहीं है बल्कि एक लोकतांत्रिक देश में ऐसी घटना का होना उच्च मानवीय मूल्यों, लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और इंसाफ की शिकस्त है.
बाबरी मस्जिद-रामजन्म भूमि मामले में इलाहबाद हाई कोर्ट का फैसला पहले आ चूका है . यहाँ हम इससे सम्बंधित कुछ ऐतिहासिक पहलुओं पर नज़र डालेंगे ताकि देश के जन गण को महज़ आस्था के नाम पर कोई दिग्भ्रमित न कर सके. एक लोकतान्त्रिक राष्ट्र में हर धर्म और समुदाय के मानने वालों के वोट का मूल्य एक सामान रहता है और उसी प्रकार हर समुदाय के अनुयायियों की आस्था का मूल्य भी एक सामान होन चाहिए . अगर एक समुदाय की आस्था की कीमत पर दुसरे समुदाय की आस्था का सम्मान किया जाता है तो यह लोकतान्त्रिक और संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ माना जायेगा.
प्रोफ़ेसर बी.बी.लाल जो एक समय पुरातत्व विभाग में थे , उन्होंने 1976 -77 में बाबरी मस्जिद के आस पास खुदाई की तो उन्हें ज़मीन में कुछ खम्बे मिले .उस वक़्त उन्होंने कभी नहीं कहा कि ये खम्बे किसी मंदिर के हैं . लेकिन बाद में वे ” विश्व हिन्दू परिषद् ” में शामिल हो गए और उसके बाद से उन्होंने यह दावा करना शुरू कर दिया कि खुदाई में जो खम्बे मिले हैं वे राम मंदिर के खम्बे हैं !!! इतिहासकार और पुरातत्व -विशेषज्ञ इस अजीबो-गरीब निष्कर्ष को मानने को तैयार नहीं हैं.
इसी सिलसिले में डॉ. आर एस शर्मा का कहना है कि “स्कंध पुराण” नामक किताब जिस के आधार पर रामचन्द्र जी के जन्म स्थान के बारे में दावा किया जाता है, उसे विभिन्न कालों में विभिन्न लोगों ने संपादित किया है. स्कन्द पुराण में “महात्म्य” अध्याय में राम जन्म भूमि का स्थान “रियना मोचन घाट” और “ब्रह्मकुंड” के बीच स्थित है. ये दोनों स्थान बाबरी मस्जिद से काफी दूरी पर सरयू नदी के किनारे स्थित हैं. इसका मतलब यह हुआ कि श्री राम चन्द्र जी का जन्म स्थान न तो बाबरी मस्जिद का अंदरूनी स्थल है और न ही वह अविवादित स्थान है जिसे सरकार ने अधिग्रहित कर लिया है.
स्कन्द पुराण में कहीं भी बाबरी मस्जिद का ज़िक्र न किया जाना इस बात का सबूत है कि उस काल में इसे सम्पादित करने वालों को मालूम था कि असली जन्मस्थान कौन सा है. स्कन्द पुराण में बदलाव का सिलसिला 18 वीं सदी तक जारी रहा जबकि बाबरी मस्जिद का निर्माण 16 वीं सदी की घटना है. यह विवाद दर असल 19 वीं सदी के बाद की पैदावार है जिसके लिए कौन कौन ज़िम्मेदार हैं यह देश की जनता को बताने की ज़रूरत नहीं है.
बाबरी मस्जिद को तोड़ने वालों का असल मकसद केंद्र की सत्ता पर क़ब्ज़ा करना और राजनितिक फायदा हासिल करना था. यह मसला धार्मिक कम, राजनैतिक ज्यादा है. बाबरी मस्जिद वास्तव में वोट-बैंक की राजनीति का शिकार हुई है. आज न सिर्फ संघ-भाजपा के हाथों, बल्कि 1949 में कांग्रेस के भी हाथों भी क्योकि उस वक़्त जवाहर लाल नेहरु को यह तथ्य मालूम हो चूका था कि 22 दिसम्बर 1949 की रात को बाबरी मस्जिद में जबरन मूर्तियाँ रख दी गईं थीं, मगर नेहरु तत्कालीन मुख्यमंत्री के सी. पन्त के हाथों मामला छोड़ कर निश्चिन्त हो गए और ऐसी भयंकर लापरवाही कर डाली जिसकी कोई मिसाल नहीं हो सकती. इस मूर्तियाँ रखने की भड़काऊ कारवाई के बाद भी वहां के जिला-मजिस्ट्रेट ने किसी किस्म की तहकीकात ज़रूरी नहीं समझी और न ही मस्जिद से मुर्तियों को हटाने का आदेश दिया जबकि उस दिन वहां सिर्फ चंद आदमी मौजूद थे .उसके बाद वहां दफा 145 के तहत एक आदेश पारित किया गया जिसके मुताबिक मस्जिद में मूर्तियों की पूजा जारी रही और मुसलमानों को मस्जिद जाने से रोक दिया गया. फिर 1950 में एक अदालती हुक्म के ज़रिये मसजिद में ताला लगा दिया गया. बाद में हाई कोर्ट ने पूजा पर पाबन्दी लगा दी तो 25 जनवरी 1986 को श्री यु.सी .पाण्डेय ने पूजा पर लगी पाबन्दी हटाने के लिए पिटीशन दाखिल किया. इसके बाद अदालती फैसले आते रहे और राजनीतिज्ञों ने इन फैसलों का उपयोग चुनावों में किया .इन सब ने देश की तकदीर उनके हाथों में सौंप दी, जो खुद बाबरी मस्जिद को ढहाने के ज़िम्मेदार थे. अगर उसी वक़्त 1949 में उत्तर प्रदेश की “कांग्रेसी” हुकूमत ने तथ्य को जान कर कोई प्रभावी , कठोर क़दम उठाया होता तो आज मुल्क को ये दिन, ये दंगे, ये जनसंहार, ये नफरतें देखनी न पड़तीं और ये संगीन दौर देखना न पड़ता.
बाबरी मस्जिद को 6 दिसंबर को ही ध्वस्त क्यों किया गया, इसके पीछे भी बहुत बड़ी साजिश और सोची-समझी रणनीति है. 6 दिसम्बर भारत के संविधान निर्माता डॉ. अम्बेडकर की पुण्य तिथि है. जिन लोगों ने इसी दिन मस्जिद को शहीद किया, वे यह बताना चाहते थे कि देश के संविधान को नहीं मानते और 6 डिसेम्बर को मस्जिद को ध्वस्त कर के उन्होंने यह सन्देश दे दिया कि वे संविधान-निर्माता की पुण्य तिथि के दिन ही संविधान की धज्जियाँ उड़ा सकते हैं, और उन्होंने ऐसा कर के दिखा भी दिया. उस दिन सांप्रदायिक ताकतों ने बाकायदा पूर्व-घोषणा के साथ भारत के मुसलमानों से एक मध्य युगीन प्रतिशोध ले लिया और देश का कानून, देश का संविधान, देश का न्यायतंत्र और राजनैतिक प्रतिष्ठान हाथ पर हाथ धरे देखता रह गया.
जब तक यह तस्लीम नहीं किया जाता कि बाबरी मस्जिद का ढहाना पिछले 60 सालों से देश में फैलाये जाने वाले ज़हर का नतीजा थी, तब तक इस ज़हर से देश को बचाया नहीं जा सकता. इसी ज़हर ने महात्मा गाँधी की हत्या की थी और यही ज़हर आज भी देश में असहिष्णुता फैला रहा है. साम्प्रदायिकता की गर्म हवाएं इन्तिहाई तेज़ी के साथ एकता और भाईचारे के स्रोतों को खुश्क करने में लगी हैं. देश की एकता, अखंडता, सहिष्णुता, भाईचारा, बहुलता और विविधता को लगातार चोट पहुंचाई जा रही है. असहमति की आवाज़ों को दबाया जा रहा है या मौत के घाट उतार दिया जा रहा है, या पाकिस्तान भेजने के आदेश सुनाये जा रहे हैं.
और यह सब ऐसे वक़्त में हो रहा है जब देश में “सबका साथ, सबका विकास” का राग अलापा जा रहा है, जब देश को “बुद्ध और गाँधी का देश” कह कर ज़ख्म के नासूर को छुपाया जा रहा है और साथ ही साथ यह उदघोष भी लगातार किया जा रहा है कि भारत में मुसलमानों को जितनी आज़ादी प्राप्त है उतनी दुनिया में कहीं और प्राप्त नहीं हैं.
मोहम्मद आरिफ दगिया