मैंने जब भी कुरआन पढ़ा, एक बात मुझे कई आयतों में लिखी नजर आई कि तुम्हारा रब बहुत विवेकवान है। मतलब, वह जानता है कि कौनसी बातों में भलाई है और किसमें बुराई है, कहाँ कौनसी चीज जरूरी है और कौनसी चीज जरूरी नहीं है।
… लेकिन यह बात रब पहले ही से जानता है! फिर इसे बार-बार क्यों दोहराया गया है? निश्चित रूप से यह बात हम इन्सानों के लिए कही गई है कि तुम्हारा रब सही-गलत, अच्छे-बुरे की पहचान करने वाला है, इसलिए तुम भी कुछ सीखो, यह काबिलियत खुद में पैदा करो, अक्ल से काम लो, होश में आकर सोचो कि कौनसी बात तुम्हारे लिए सही है और कौनसी गलत।
कुरआन बार-बार यह बात दोहराता है, ताकि इन्सान की आंखें किसी एक आयत को पढ़ने से चूक जाएं तो वह दूसरी आयत में पढ़ ले। यह इन्सान के लिए बहुत बड़ा इशारा है। मगर अफसोस कि हमने आज तक सबसे ज्यादा अनदेखी इसी बात को लेकर की है। खासतौर से हम भारत के हिंदुओं और मुसलमानों ने।
आज मैं आपको कुछ सत्य घटनाएं सुनाऊंगा। इन्हें पढ़कर अगर आपको मुझ पर गुस्सा करने का मन करे तो फौरन ठंडा पानी पीएं और होश से काम लें। सच सुनने की, सच पढ़ने की आदत डालें। अगर हम आज नहीं सुधरे तो यकीन कीजिए, दुनिया हमारी नस्लों को कोड़े मार-मारकर सुधारेगी।
– जिसने भी स्वामी विवेकानंद का नाम सुना है, वह अवश्य जानता होगा कि उन्होंने अमरीका में आयोजित विश्वधर्म सम्मेलन में भाग लिया तथा बहुत ओजपूर्ण भाषण दिया। अमरीका जाने से पूर्व उन्होंने पूरे भारत का भ्रमण किया था, कई लोगों से मुलाकातें की थीं।
तब कई कट्टरपंथियों और रूढ़िवादियों ने स्वामीजी का विरोध किया था। उनका कहना था कि एक हिंदू संन्यासी को समुद्र की यात्रा नहीं करनी चाहिए। उसे दूसरे देशों में जाकर ईसाइयों के हाथ का अन्न नहीं खाना चाहिए, अन्यथा उसका धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। उसे अमरीका की सर्दी में वहां प्रचलित ऊनी कपड़े भी नहीं पहनने चाहिए क्योंकि यह भारत के संन्यासियों का वेश नहीं है। साधु-महात्मा को तो लंगोट तथा भगवा ही पहनना चाहिए, भले ही सर्दी में जान चली जाए।
आज हम इन घटनाओं को पढ़ते हैं तो ये बेसिर-पैर की बातें लगती हैं लेकिन ऐसा हुआ था। तब रूढ़िवादियों ने स्वामीजी का बहुत विरोध किया था।
बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। जब कलकत्ता में पहली बार रेल चली और गांव-देहात से लोग जिज्ञासावश रेल देखने आए थे, उन्हें धर्मगुरुओं ने जाति से बाहर निकाल दिया था। उनका मानना था कि हमारे शास्त्रों में रेल का उल्लेख नहीं है। यह विलायती वाहन है, इसलिए जो भी इसे देखने जाएगा, इससे यात्रा करेगा, वह नर्क का भागी होगा। उसे तुरंत धर्म से निकाल दिया जाएगा।
इतिहास के कुछ पन्ने और पलटिए। इसी भारत में एक जमाना था जब विधवा औरतों को पति की लाश के साथ जिंदा जला दिया जाता था। इसे सती प्रथा का नाम दिया गया और रूढ़िवादियों को इस पर बहुत अभिमान था। भला हो राजा राममोहन राय और अंग्रेजों का, उन्होंने सख्ती बरती और इस प्रथा पर रोक लगी। मगर हम फिर भी नहीं माने। 1987 में दिवराला सती कांड से यह जाहिर हो गया कि हम वास्तव में कितने अक्लमंद हैं। इसके बाद सरकार ने फिर सख्ती की। दुआ करें कि भविष्य में कोई औरत इस तरह जिंदा न जलाई जाए।
दुआ करें उन लोगों के लिए जिन्होंने आजादी के बाद सेकुलर राष्ट्र का समर्थन किया। अगर ऐसा न होता तो आज भारत के हालात पाकिस्तान से भी बदतर होते।
– अब मैं इस्लाम की बात करूंगा। उस इस्लाम की जो सबसे ज्यादा बुलंद आवाज में अमन, मुहब्बत, भाईचारे और ज्ञान का संदेश देता है। बहुत पहले की बात है। तब प्रिंटिंग प्रेस का आविष्कार हुआ ही था। एक इस्लामी देश (जिसका नाम मैं नहीं लिख रहा) में फतवा जारी हुआ कि प्रिंटिंग प्रेस पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। कारण यह बताया गया कि आज तक कुरआन की प्रतियां हाथों से नकल कर तैयार की गई हैं। इस्लाम में कहीं प्रेस का जिक्र तक नहीं है। यह दूसरे दीन के लोगों की बनाई मशीन है, लिहाजा हम इसे नहीं अपनाएंगे।
प्रिंटिंग प्रेस पर प्रतिबंध लगा दिया गया और 200 साल तक यह प्रतिबंध जारी रहा। इस दौरान यूरोप में प्रेस का काम बहुत फैला। खूब किताबें छपीं। बच्चा-बच्चा किताबें पढ़ने लगा। कई बौद्धिक क्रांतियां हुईं। क्रांतिकारी आविष्कार हुए। विचारों में परिवर्तन आया। लोगों ने नया सलीका सीखा। यूरोप प्रगति की राह पर बढ़ने लगा।
उन लोगों का धर्म ईसाई ही रहा। वे चर्च में जाते रहे, पर बात जब सियासत की आई तो उन्होंने धर्मगुरुओं को साफ कह दिया कि धर्म का काम इन्सान बनाना है। आप इन्सान को इन्सान बनना सिखाइए। धर्म का काम सीधे-सीधे राज्य चलाना नहीं है। आप यह तय न करें कि शासक किसको बनना चाहिए। उन्हें चुनने का काम जनता का है।
यूरोप में वही संस्कार आज भी मौजूद हैं। इस दौरान मुसलमान पिछड़ते गए। उनका सदियों पुराना विज्ञान यूरोप के आधुनिक आविष्कारों के सामने कहीं नहीं टिका। जब आंखें खुलीं तो मालूम हुआ कि दुनिया बहुत आगे जा चुकी है। बाकी कसर उन धर्मगुरुओं ने पूरी कर दी जिन्होंने कभी नहीं सोचा कि भविष्य की दुनिया किस ओर जाएगी।
ताज्जुब होता है कि महान पैगम्बर (सल्ल.), महान किताब (कुरआन) और सबसे महान अल्लाह को मानने वाले मुसलमानों की ये हालत कैसे हो गई! इन्हें तो सबसे अच्छे लोकतंत्र का हीरो होना चाहिए था, लेकिन दुनिया में ऐसे कोई पांच मुस्लिम देश नहीं मिलते जिनके लोकतंत्र की मिसाल दी जा सके।
आखिर यह सब हुआ कैसे? इन हालात के लिए मैं कहूंगा कि मुसलमानों से कई बड़ी गलतियां हुईं। खासतौर से कुरआन को भूलने की गलती, उसके असल पैगाम को जिंदगी में न उतारने की गलती। जो नेता-नवाब मिले, उनमें से ज्यादातर ने ‘इस्लाम खतरे में है’ कहकर अपना उल्लू सीधा किया और आम मुसलमान की मुट्ठी हमेशा खाली ही रही।
मुसलमानों को तो ज्ञान-विज्ञान, तब्दीली, तरक्की, खुशहाली और दोस्ती की दुनिया का हीरो बनना था लेकिन कुछ लोगों ने इस्लाम के नाम पर ऐसे भ्रम फैलाए कि अब आम मुसलमान समझ ही नहीं पाता कि कौन उसका दोस्त है और कौन नहीं। पता ही नहीं चलता कि किसे गले लगाएं और किससे गला छुड़ाएं।
हम भारत के हिंदू और मुसलमानों की सदियों पुरानी समस्या यह भी है कि दोनों ही एक खास किस्म के डर के साथ जी रहे हैं। दोनों को ही लगता है कि उनके धर्म को खतरा है। हम दोनों ऐसे विचित्र जीव हैं जो करोड़ों की तादाद में होकर भी कहते हैं कि हमारा धर्म खतरे में है। भाई वाह!!
गीता में श्रीकृष्ण यह वायदा करते हैं कि वे मेरे धर्म की रक्षा करेंगे। वहीं कुरआन में अल्लाह साफ कहता है कि उसने दीन को मुकम्मल बना दिया और कयामत तक उसकी हिफाजत करेगा। फिर हम लोग कौन हैं जो इस बात की फिक्र करें कि मेरा दीन इस धरती पर रहेगा कि नहीं रहेगा? जिसने दीन-धर्म दिया है, वह खुद उसकी फिक्र करेगा। बेहतर हो कि हम अपनी फिक्र करें, अपने घर की फिक्र करें, अपने मां-बाप की फिक्र करें, बीवी-बच्चों की फिक्र करें, गरीबों-यतीमों की फिक्र करें।
हमारे लिए यह शर्म की बात है कि करोड़ों की तादाद में होकर भी ऐसे कोई 100 आविष्कार नहीं कर पाए जो सिर्फ हमारे पास हों। शर्म करो। हमने तो अपना पूरा ध्यान डर-डरकर जीने और बेतहाशा आबादी बढ़ाने में लगा रखा है। हर साल झुंड के झुंड बच्चे पैदा हो जाते हैं लेकिन उनमें से आधे भी काबिल नहीं बन पाते। ऐसे लोग लाखों क्यों अरबों-खरबों भी हो जाएं और पूरी धरती पर फैल जाएं तो भी दुनिया का भला नहीं कर सकते।
अगर सीखना है तो इन मुट्ठीभर यहूदियों से ही कुछ सीख लो। दुनिया इन्हें जालिम कहती है तो कहती रहे, लेकिन ये तादाद में कम होकर भी अपनों की खुशहाली के लिए कसमें खा रहे हैं। इनकी अवाम भूख से नहीं मरती। पूरी दुनिया पर इनका कब्जा हो जाए तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। सीखना है तो इन पारसियों से कुछ सीख लो। कभी नहीं कहते कि हम तादाद में कम हैं लेकिन इनके हुनर, मेहनत, कारोबार और तरक्की को दुनिया सलाम करती है। ये जहां भी जाते हैं इज्जत पाते हैं। सीखना है तो इन मुट्ठीभर अंग्रेजों से ही कुछ सीख लो। हमारे दादा-परदादा करोड़ों की तादाद में होकर भी इन हजारों अंग्रेजों का हुक्म बजाते थे।
सीखना है तो उन सिक्खों और सिंधियों से कुछ सीखो जो बंटवारे के वक्त पाकिस्तान से लगभग खाली हाथ आए थे। इन्होंने अपनी मेहनत, लगन, वफादारी और ईमानदारी से सबकुछ हासिल कर लिया। खासतौर से सिक्ख कभी शिकायत नहीं करते कि वे दुनिया में अल्पसंख्यक हैं लेकिन कभी कनाडा, अमरीका, आॅस्ट्रेलिया, इंग्लैंड जाओ तो देखो, सरदार वास्तव में दुनिया के सरदार हैं।
सीखना है तो इन चीनियों से ही कुछ सीख लो। दुनिया इन्हें क्या-क्या कहती है, ये परवाह नहीं करते। अपने दम पर खड़े हैं और हर दिन तरक्की कर रहे हैं। अगर चीन समझदारी भरे फैसले न लेता और आबादी पर सख्ती न करता तो कसम खुदा की, यह मुल्क दाने-दाने का मोहताज होता।
एक हम हैं, करोड़ों-अरबों की तादाद में हैं … लेकिन कोई योजना नहीं। क्या करना है, कहां जाना है, कैसे रहना है, हम क्या हैं और हमें क्या होना चाहिए … कुछ भी नहीं पता। बस एक भीड़ है जो अपनी भगदड़ से ही खुश है। इसे वह तरक्की का नाम दे रही है।
आज इस्लाम और हिंदू धर्म को असल खतरा उन्हीं लोगों से है जो इस भगदड़ का हिस्सा हैं। न्यूटन को तो एक सेब गिरता देख अक्ल आ गई थी। हम तो धक्के खाते-खाते इतना गिर गए हैं मगर अक्ल है कि आती ही नहीं।