
(वरिष्ठ पत्रकार)
मध्यप्रदेश पुलिस के मुताबिक उसने मुहम्मद अक़ील खिलजी और अमजद को आतंकवाद के आरोप में 13 जून 2011 को गिरफ़्तार किया था. रात 11:45 बजे गिरफ़्तारी के बाद पुलिस ने दावा किया कि उसने गुलमोहर पार्क स्थित अक़ील खिलजी के घर छापेमारी की जहां सिमी के कार्यकर्ताओं की बैठक चल रही थी. पुलिस ने यह भी कहा कि बैठक के दौरान खिलजी और बाकी संदिग्ध आतंकी हमलों की साज़िश रच रहे थे.
मगर पुलिस के दावे से इतर कोर्ट के दस्तावेज़ एक दूसरी कहानी कह रहे हैं. हलफ़नामों, ज़मानत याचिकाओं और ख़ासतौर से एक मैजिस्ट्रेट के ऑर्डर 6 जून से 10 जून के बीच के हैं. इन दस्तावेज़ों से पता चलता है कि खंडवा पुलिस ने मुलज़िमों को 13 जून से पहले से अपनी कस्डटी में ले रखा था.
जिससे यह साफतौर पर स्पष्ट हो जाता है कि जिन सिमी कार्यकर्ताओं को पुलिस ने विभिन्न प्रकार के अपराधों में पकड़ा था उनके केस बेहद कमज़ोर थे। न्यायिक प्रक्रिया के तहत सुचारू रूप से केस के चलने से पुलिसिया थ्योरी बर्बाद हो जाती लेकिन उससे पहले ही पुलिस ने सभी का काम तमाम कर दिया।
यह बेहद डरावना है। ऐसे में तो पुलिस किसी का भी काम तमाम कर सकती है। फर्जी आरोप लगा कर पकड़ना और अपने हिसाब से कार्यवाई करना। लोकतत्र के लिए खतरे का अलॉर्म है यह।
आज तेरा कल मेरा नम्बर
मुठभेड़ में पुलिस किसी को भी मार सकती है। मुसलमान को भी मारती है, हिंदू को भी मारा है। सिक्खों और नॉर्थ ईस्ट की जनता की हत्याएं पुलिस और सुरक्षा बलों ने की है।
आज कुछ मुसलमान नाम वाले कैदियों को आतंकवादी कह कर मार दिया गया, जो लोग इस पर सवास उठा रहे हैं वे इसलिए नहीं उठा रहे हैं कि उन्हें किसी अपराधी से सहानुभूति है बल्कि इसलिए उठा रहे हैं ताकि कल को कोई पुलिसवाला आपको, आपके घर से उठा कर इनकाउंटर न कर दे। जी मैं आपकी ही बात कर रहा हूं। जो दिन रात सोशल मीडिया पर इंसाफपसंद लोगों को गरियाते टहलते हैं।
सवाल उठाते रहना चाहिए, ताकि सच सामने आए। सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन भी कहती है कि कोई भी पुलिसकर्मी किसी अपराध में कथित तौर पर शामिल आरोपी को जान से नहीं मार सकती। गोली इस तरह चलाई जानी चाहिए की वह सिर्फ घायल हो। गोली सिर्फ उस परिस्थिति में चलाई जाए जबकि पता हो की सामने वाले से पुलिस की जान जा सकती है, लेकिन आत्मरक्षा हेतु पुलिस अपनी जान बचाने के लिए किसी की जान नहीं ले सकती। घायल करने की नियत से गोली चलनी चाहिए। भोपाल में क्या हुआ? ज़मीन पर घायल पड़े कैदियों पर पुलिसकर्मी गोली बरसा रहे थे। गाली दे रहे थे। यह लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए चिंता का विषय है। सुरक्षा में तैनात सुरक्षाकर्मी आखिर कर्तव्य के पालन के समय नफरत कहां से पैदा कर लेते हैं? यदि सुरक्षा बलों में आम नागरिकों के प्रति नफरत का यही आलम रहा तब तो देश का हर नागरिक असुरक्षित है।
भोपाल में सिमी के आठ कार्यकर्ताओं की हत्या हुई है क्योंकि वे निहत्थे थे। हथियार होता भी तो उनकी जान लेने का अधिकार कानूनन पुलिसवालों के पास नहीं है। पुलिस को पुलिस रहने दें, अदालत न बनाएं। बहुत महंगा पड़ेगा हम सबको। नफरत फैलाने वाले चंद मुट्ठी भर लोगों का मुकाबला करते रहें। सरकार और प्रशासन की नियत पर सवाल करना, देशद्रोह नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है। पारदर्शिता बनाए रखने के लिए सूचना का अधिकार कानून बनाया गया था। यह बात कोई केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरन रिजिजू को भी बता दे। मेरी उन तक पहुंच नहीं वरना मैं खुद बता देता। उनको सवाल करने वाले पसंद नहीं। वे जनता के सवाल वाले वर्ग से खासे ख़फा हैं।
मीडिया को किसने दिया ‘फैसला’ सुनाने का हक?
ज्यादातर न्यूज़ चैनल और न्यूज़ पोर्टल सिमी के आठ कार्यकर्ताओं को आतंकवादी लिख और बता रहे हैं। जबकि वे आठ कार्यकर्ता अंडर ट्रायल थे। आरोपसिद्ध होना अथवा चार्ज़शीट फाइल करने के बाद उन्हें तब तक आतंकवादी नहीं लिखा जा सकता जब तक की अदालत से उनके किए अपराध पर सज़ा तय न हो जाए।
अंडर ट्रायल आरोपियों पर बम ब्लॉस्ट , बैंक डकैती समेत कई मामले जेल से ही वीडियो कॉफ्रेसिंग माध्यम से चल रहे थे। इन परिस्थितियों में उन्हें आतंकी कहना सरासर गलत है। हम सबको पता है कि सुरक्षा एजेंसियां एक खास धार्मिक समूह के साथ आतंकवादी का लेबल लगा मीडिया ट्रायल की खुली छूट दे देती हैं। हाल फिलहाल के ऐसे कई दर्जन मामले सामने आएं हैं जिसमें बेकसूरों को दस-दस साल बाद जेल से आतंक के आरोप से आरोपमुक्त होते देखा गया है। इन हालात में मीडिया से इतनी उम्मीद तो की जा सकती है कि वह सिमी के आठ कार्यकर्ताओं को आतंकवादी न लिखे न बताए।
भारतीय मीडिया को बीबीसी से सीखना चाहिए।
#मार डालो मैं मुसलमान हूं।
ये जो भी लिख रहे हैं वे एक नंबर के बेहुदे और गंदे इंसान है।
यह तो आत्मसमर्ण करना हुआ। यह तो वॉकओवर देना हुआ। फिर तो देश की अदालतें खत्म कर देनी चाहिए। सारा फैसला हिंदुत्व बिग्रेड के हाथों ही होना है तो जाइए जा कर खुद को गोली मरवा आइए। फेसबुक पर क्या कर रहे हैं? जाइए, जा कर शर्ट उतार कर सीना सामने रख दीजिए संघियों के, वे यही तो चाहते हैं कि आप हार जाएं। आप रोएं, आंसू बहाएं, फटेहाल बने रहें। यही तो आरएसएस चाहती है। लेकिन संविधान ऐसा नहीं चाहता। संविधान सबको बराबरी का हक़ देता है। संघर्ष करने का हौसला देता है।
छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के साथ हर रोज़ अन्याय हो रहा है। औरतों का रेप हो रहा है। आदिवासियों की पूजा पद्धति बहुत हद तक हिंदुओं से मिलती जुलती है। लेकिन अन्याय तो उनके साथ भी किया ही जा रहा है न। दलितों को फूटी आंख भी देखना नहीं पसंद करते बहुत से लोग, पर वे लड़ रहे हैं न। ज्यूडिशियल कस्टडी में मर्डर जितने मुसलमानों के हुए हैं उससे कहीं ज्यादा आदिवासियों के हो रहे हैं। वे भी इंसान हैं। भारतीय नागरिक हैं। हमसे ज्यादा अधिकार प्राप्त हैं उन्हें फिर भी मारे जा रहे हैं।
खुदा के लिए खुद को कमज़ोर या मायूस न बनाइए। चढ़ कर रहिए संघियों पर। इनके बाप का हिंदुस्तान नहीं है। हमारा खून शामिल है यहां की मिट्टी में। क्या हुआ जो हुकूमत फासिस्टों की है, क्या हुआ जो हर रोज़ हमारा कत्ल हो रहा है। आत्मसमर्पण तो कतई न कीजिए।
( लेखक वरिष्ठ पत्रकार है तथा समाज में पीड़ित समाज से जुड़े मुद्दों को उठाने के लिए पहचाने जाते है )