ध्रुव गुप्त
बिहार की राजधानी पटना में शहीद एक पीर अली खान के नाम पर एक छोटा सा पार्क है और शहर से हवाई अड्डे को जोड़ने वाली एक सड़क भी। शहर में उनकी मज़ार भी है और उनके नाम का एक मोहल्ला पीरबहोर भी। पिछले आठ सालों से बिहार सरकार उनकी शहादत की याद में 7 जुलाई का दिन शहीद दिवस के रूप में मनाती है। इसके बावज़ूद देश और बिहार तो क्या, पटना के भी बहुत कम लोगों को पता है कि पीर अली वस्तुतः कौन थे और उनकी शहादत क्यों महत्वपूर्ण है। शहीदों में पीर अली एक ऐसा नाम है जिसे इतिहास ने लगभग विस्मृत कर दिया है।
बाबू वीर कुंवर सिंह की तरह 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बिहार चैप्टर वे नायक थे आज़ादी के जंग में जिनका योगदान कुंवर सिंह से कम महत्वपूर्ण नहीं था।1820 में आजमगढ़ के एक गांव मुहम्मदपुर में जन्मे पीर अली पारिवारिक वजहों से अपनी किशोरावस्था में ही घर से भागकर पटना आ गए। पटना के एक ज़मींदार नवाब मीर अब्दुल्लाह ने उनकी परवरिश की और उन्हें पढ़ाया-लिखाया। बड़े होने के बाद आजीविका के लिए पीर अली ने किताबों की एक छोटी दुकान खोल ली। उनकी छोटी-सी दुकान धीरे-धीरे प्रदेश के क्रांतिकारियों के अड्डे में तब्दील हो गया। क्रांतिकारियों के संपर्क में आने के बाद दुकान पर देश भर से क्रांतिकारी साहित्य मंगाकर बेचीं जाने लगी।
कालांतर में पीर अली ने अंग्रेजों की गुलामी से देश को आज़ाद कराने की मुहिम में अपने हिस्से का योगदान देना अपने जीवन का मक़सद बना लिया। दिल्ली के क्रांतिकारी अज़िमुल्लाह खान से वे मार्गदर्शन प्राप्त करते थे। 1857 की क्रांति के वक़्त बिहार में घूम-घूमकर लोगों में आज़ादी और संघर्ष का जज़्बा पैदा करने और उन्हें संगठित करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई। उसी दौर में उन्होंने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक ऐसी योजना बनाई जिसकी भनक अंग्रेजों को नहीं लग सकी। योजना के अनुसार 3 जुलाई, 1857 को पीर अली के घर पर दो सौ से ज्यादा आज़ादी के दीवाने इकट्ठे हुए।
पीर अली ने सैकड़ों हथियारबंद लोगो की अगुवाई करते हुए पटना के गुलज़ार बाग स्थित उस प्राशासनिक भवन पर धावा बोल दिया। यह वह भवन था जहां से रियासत की क्रांतिकारी गतिविधियों पर नज़र रखी जाती थी और उनपर कार्रवाई की रूपरेखा तैयार होती थी। क्रांतिकारियों के चौतरफा हमले में घिरे अंग्रेजों ने डॉ. लॉयल के नेतृत्व में भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी। क्रांतिकारियों की ज़वाबी फायरिंग में डॉ. लॉयल अपने कई साथियों समेत मारा गया। अंग्रेजों की अंधाधुंध गोलीबारी में कई क्रन्तिकारी शहीद हुए और दर्जनों घायल। पीर अली और उनके ज्यादातर साथी हमले के बाद बच निकलने में सफल हो गए ,
दो दिनों बाद 5 जुलाई को पीर अली और उनके दर्जनों साथियों को पुलिस ने बग़ावत के जुर्म मे गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्हें यातनाएं दी गईं। पटना के कमिश्नर विलियम टेलर ने उनसे कहा कि अगर वे देश भर के अपने क्रांतिकारी साथियों के नाम बता दें तो उनकी जान बख्शी जा सकती है। पीर अली ने उनका प्रस्ताव ठुकरा दिया। जवाब में उन्होंने कहा था – ‘ज़िन्दगी में कई ऐसे मौक़े आते हैं जब जान बचाना ज़रूरी होता है। कई ऐसे मौक़े भी आते हैं जब जान देना ज़रूरी हो जाता है। यह वक़्त जान देने का ही है।’ अंग्रेजी हुकूमत ने दिखावे के ट्रायल के बाद 7 जुलाई, 1857 को पीर अली को उनके कई साथियों के साथ बीच सड़क पर फांसी पर लटका दिया। फांसी के फंदे पर झूलने के पहले पीर अली के आख़िरी शब्द थे – ‘तुम हमें फांसी पर लटका सकते हो, लेकिन हमारे आदर्श की हत्या नहीं कर सकते। मैं मरूंगा तो मेरे खून से लाखों बहादुर पैदा होंगे जो तुम्हारे ज़ुल्म का ख़ात्मा कर देंगे।’
आज शहीद पीर अली की शहादत का कोई नामलेवा तक नहीं है। उनके शहादत दिवस पर जो समारोह होता है, उसमें सरकार के कुछ नुमाईंदों के अलावा आम लोगों की भागीदारी नगण्य ही होती है। शहीदों की मजारों पर जुड़ेंगे हर बरस मेले – बिल्कुल किताबी बात है न ?
(लेखक पूर्व आईपीएस है)