अपर्णा शर्मा
एक ओर हमारा समाज पाॅर्न स्टार्स का,उनके सौंदर्य का,उनके अभिनय का, उनके व्यक्तित्व का,इतना सम्मान करता है कि उन्हें सिलेब्रिटी का दर्जा दे सकता है। और दूसरी ओर हमारे समाज में इतनी भी हिम्मत नहीं कि एक बलात्कार पिडि़ता को समाज में आम इंसान का दर्जा देने का भी माद्दा रख सके। सिनेमा जगत में बोल्ड सीन देनें वाली अदाकाराएॅ, अपनी बेबाकी के लिए ढेरों अवाॅर्ड तक ले जाती हैं। और बलात्कार पिडि़ता समाज में अपना सम्मान भी खो देती है।
अनगिनत बार वार्डरोब माल्फंक्शन का शिकार हुई हिरोइनें बेझिझक पूरे सम्मान के साथ इन्डस्ट्री में आगे बढ़ जाती है, पर रेप पिडि़ता घर से बाहर कदम भी नहीं रख सकती। समाज में रहने वाले बुद्धीजीवि ‘‘रेप मत करो’’ सिखाने के बजाय ‘‘रेप से बचो’’ सिखाते हैं।
जब लीला सिनेमाघरों मे आती है तो यूवा तो क्या अधेड़ भी उमड़ पड़ते हैं लीला के सौंदर्य का लुत्फ उठाने। पर जब आम लड़कियाॅं छेड़खानी का शिकार होती हैं तो दोष दिया जाता है उनके पहनावे को। अगर आम लड़की के कपड़े लड़के को उकसाते हैं, तो हिरोइनों के नहीं? समाज के जो ठेकेदार लड़कियों के पहनावे को दोष देते हैं वे तब तक सिनेमाघरों में जाना ही बंद क्यों़़़़़़़़़़़ नहीं कर देते ,
जब तक कि ये हिरोइनें बुर्के में नहीं आ जाती। अगर पहनावा इस विकृती का जन्मदाता है तो क्या बेटी पैदा होते ही उसे पर्दे में रखना शुरू कर दिया जाए? क्योंकि ये पिशाच तो दूधमूॅंही बच्ची को भी नहीं बख़्शते।
आर. जे. नावेद से जब किसी ने कहा कि अगर लड़कियाॅं रात को 9रू30 बजे के बाद घर से निकलेंगी तो बलात्कार तो होंगे ही। उन महानुभाव को समझाने हेतु नावेद ने कहा था कि रात को 9रू30 के बाद इतनी लड़कियाॅं घर से निकले कि ये पिशाच ख़ौफजदा हो जाएॅं। अगर हम यूं ही कहते रहे कि अगर रात को लड़कियाॅं घर से निकलेंगी तो बलात्कार तो होंगे ही, तो एक दिन ऐसा आएगा कि लोग कहेंगे अगर लड़कियाॅं साॅंस लेंगी तो बलात्कार होंगे ही। तब क्या हम लड़कियों के साॅंस लेने पर भी पाबंदी लगाएंगे?
अपनी तानाशाही चलाने वाली खाप पंचायतें प्रेमी युगल और उनके परीवार कोे समाज से बेदखल करने का फरमान तो जारी कर सकती है पर बलात्कारियों के लिए ऐसा फैसला लेने कि ज़हमत नहीं उठाना चाहती। और तो और पूर्वी भारत में जब एक मनचले ने एक महीला से छेड़छाड़ की तो इन समाज के ठेकेदारों ने जो सज़ा सुनाई वो इन्सानियत को भी शर्मसार कर दे। उस खाप पंचायत ने उस महीला के पति को उस मनचले की दस र्विर्षय बहन के साथ दुश्कर्म का आदेश दिया। दाद देनी चाहिए हमारे न्यायप्रिय समाज की।
प.बंगाल की एक किशोरी ने जब अपने साथ हुए दुश्कर्म के खिलाफ आवाज़ उठाई तो उसे फिर उसी घिनौने अंजाम से गुज़रना पड़ा। उन दुराचारियों के इस दुस्साहस के पीछे था हमारे सभ्य समाज का हाथ। इस दर्दनाक पीड़ा से गुज़रने के बाद उस मासूम को समाज के ताने और नफ़रत भी झेलनी पड़ी। दो-दो बार हैवानियत झेलने के बाद भी उसके खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत रखने वाली किशोरी समाज की नफरत के सामने हार गई और उसने ख़ुद को जलाकर ख़त्म कर लिया।
42 साल पहले अपने साथ हुए दुश्कर्म की सज़ा अरूणा को तब तक झेलनी पड़ी जब तक साॅंसों ने शरीर का साथ नहीं छोड़ दिया। और दुश्कर्म करने वाले पर तो आरोप भी सिर्फ चोरी और हत्या के प्रयास का लगा। सात साल की सज़ा में बरी हो गया मुजरिम और पीडि़ता वो दर्द 42 साल तक झेलती रही।
दिल्ली की निर्भया के साथ हुए घिनौने काम ने कुछ समय के लिए जनता में आक्रोश पैदा किया। लगा अब कोई सख़्त कानून बनेगा। पर नतीजा वही सिफ़र। हैरानी तो संत पुरुषों के इन बयानों पर हुई कि ‘‘वो इतनी रात को बाहर निकली ही क्यों ?’’,‘‘अगर वो उन्हें भैया कहती तो बच जाती।’’ क्या बात है! जिस सपूत को उसकी माॅं अपना बेटा मानने में भी शर्म महसूस करे, उसे हम अपना भाई बना लें? बयानों से ही व्यक्तित्व का पता चलता है। तभी महानुभाव आज अपने पुण्य कर्मों का फल भुगतने ससुराल पहुॅंच गए। सीकर की 11 वर्शिय गुडि़या अपने साथ हुए दुराचार की सज़ा दो साल तक अस्पताल में सहती रही, पर दुश्कर्म करने वालों की शिनाख़्त तक ना हो सकी। और जब वो घर तलाशने निकली तो समाज के इज़्जतदार लोगों ने मुॅंह फेर लिया और उस मासूम को अपने गाॅंव लौटना पड़ा।
तो यह है हमारा सभ्य, सुशिक्षित, इज़्जतदार और न्यायप्रिय समाज। जो बलात्कारियों का तो खुलेआम घूमना स्वीकार करता है, पर उनकी हैवानियत का शिकार हुई मासूमों को इज़्जत और सुकून की जिंदगी नहीं बख़्श सकता। ये समाज के ठेकेदार याद रखें ख़ुदा-न-ख़ास्ता जिस दिन उनकी बेटी ऐसी घटना का शिकार हुई उस दिन वे भी अपने इस सम्मान प्रिय समाज से तिरस्कृत कर बेदखल कर दिए जाएंगे। और तब शायद इन्हें समझ आए कि वे गलत थे। और अगर सबको समझाने का यही एकमात्र तरीका बचा है, तो विषय पर चिंतन आवश्यक है।
हमारा संविधान, जो देश के चहुॅंमुखी विकास को ध्यान में रखकर बनाया गया है, कहता था 14 साल से कम उम्र का बच्चा किसी भी ऐसे काम में लिप्त ना हो जो उसके सामाजिक, शारीरिक या मानसिक विकास में बाधा बनें। आज यह परिभाशा बदल गई है। और बच्चों को अपने पुश्तैनी कामों में हाथ बंटाने की छूट मिल गई है बशर्ते उनकी पढ़ाई ना रुके।
भारत में बालश्रम के विरुद्ध कानून इसलिए बना ताकि पैसे कमाने के लिए बच्चों का शोषण ना किया जा सके। उनका भविष्य सुरक्षित किया जा सके। उनका सामाजिक, शारीरिक व मानसिक विकास पूर्णरूपेण सुनिश्चित किया जा सके। और कानून बनने के बाद न जाने कितने बाल मजदूरों को शोषण से बचाया गया। घरेलू कामों में लगाई गई लड़कियों, ईंट-भट्टों, मकानों, फैक्ट्रियों में काम कर रहे बच्चों को मुक्त कराया गया।
परन्तु क्या यही बालश्रम है? क्या यह कानून पूर्णरूपेण सही है? क्या इसमें हर बच्चे का हित सुरक्षित कर दिया गया है?
यदि हाॅं? तो मेरे पड़ोस में रहने वाली मुनिया का क्या? जो सुबह छः बजे उठकर, भैंसों का गोबर उठाती है, उन्हें चारा खिलाती है, पूरे घर में झाड़ू-पोंछा करने के बाद अपने छोटेे भाई राजू को नहलाती है, खु़द नहाकर दोनों के कपड़े धोती है, खाना बनाने में माॅं का हाथ बॅंटाती है फिर स्कूल के लिए निकल जाती है। और अगर पीछे से राजू रोने लगे तो माॅं चिल्लाती हे….. एक दिन स्कूल नहीं जाएगी तो मर नहीं जाएगी। और मुनिया अपनी आॅंखों में आॅंसू लिए राजू को चुप कराती है फिर भरी दुपहरी में कूएॅं पर जाकर पानी लाती है। और रास्ते में नीम के नीचे खेल रहे सोनू, मोनू और बबलू को खेलते हुए ललचाई आॅंखों से देखती वापस घर लौट आती है। उन्हें खेलते देखकर ही अपने बालमन को तस्सल्ली देने के लिए दो मटके पानी ज़्यादा भी लाती है। फिर घर लौटने में देर होने की वजह से माॅं के तमाचों की बौछार और दादी के ताने……. अगले घर जाएगी तो बस उलाहना दिलवाएगी। रोती-सिसकती मुनिया दोपहर के जूठे बरतन धोकर बाबा को चाय पहुॅंचाने खेत चली जाती है। शाम को लौटकर फिर भैंसों को चारा खिलाती है। रात को खाना खाकर साढ़े दस बजे सारे बरतन धोकर पहले राजू को सुलाती है फिर ख़ुद सो जाती है।
पर मुनिया बाल मजदूर नहीं है। वह तो बेटी है जो घर के कामों में हाथ बांटती है।
क्या मुनिया की मासूमियत ख़त्म नहीं हो रही? क्या उसका सामाजिक, शारीरिक व मानसिक विकास पूर्णरूपेण हो रहा है? क्या हमारे संविधान में बालश्रम की परीभाषा सही है?