कमल सिंह
अमेरिकी विदेश मंत्री माइक आर पोम्पिओ और रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस तथा भारतीय विदेश मंत्री सुषमा स्वराज आैर रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमण ने विगत 6 सितंबर का संपन्न 2+2 मीटिंग में काॅमकासा नामक समझाैते पर हस्ताक्षर किए हैं। काॅमकासा समझौता उन चार आधारभूत समझौतों में से एक है, जिसे देश को अमेरिका का प्रमुख रक्षा भागीदार बनने के लिए किसी देश को कबूल करना होता है। अन्य तीन समझौते हैं- सैन्य सूचनाआें की सामान्य सुरक्षा समझौता (General Security Of Military Information Agreement -GSOMIA) , रसद विनिमय समझौता पत्र- लेमो (Logistics Exchange Memorandum of Agreement – LEMOA) ) और आधारभूत विनिमय आैर सहयोग समझौता- बीका (Basic Exchange and Cooperation Agreement – BECA)। इनमें से दो अन्य समझौते भारत सरकार पहले ही कर चुकी है, बस अब एक समझाैता (बीका) रह गया है, जो भू-स्थानिक डेटा विनमय की सुविधा आदान-प्रदान से संगंधित है।
काॅमकासा के पहले मोदी-आरएसएस सरकार 2016 में लेमो पर हस्ताक्षर कर चुकी है। लाॅजिसटिक विनिमय के इस समझौते के अंतर्गत दोनों देशों को ईधन भरने और सैन्य ठिकानो के प्रयाेग, हवार्इ अड्डों आदि के इस्तेमाल सहित तमाम सैन्य सुविधाएं सम्मिलित हैं। यह प्रावधान इसमें जरूर है कि किसी पक्ष के असहत होने की स्थिति में उसे बाध्य नहीं किया जा सकता है। हमारी अर्थनीति से लेकर रक्षा, हथियार व सैन्य तकनीकी जितना अधिक अमेरिका पर निर्भर होते जाएंगे, असहमति का अधिकार का कितना महफूज रह सकेगा इस पर भी सोचने की जरूरत है। बराबर की हैसियत में सहमति-असहमति चलती है। ताकतवर से कमाजाेर की मित्रता में स्थिति दूसरी होती है। कामकासा के बाद 2019 में अमेरिका आैर भारत की जल-थल-वायु सेनाआें का प्रथम संयुक्त सैन्याभ्यास, जैसा कि उत्तर कोरिया के साथ होता है, प्रारंभ हो जाएगा। लोकसभा चुनावों के लगभग गर्मियों में पुनः2+2 मंत्रिस्तरीय बातचीत की भी योजना है, जिसमें आगे के रोडमैप पर विचार होगा। लेमो के पहले सैन्य सूचनाआें के विनिमय से संबंधित समझौता 2002 में अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रित्व काल में भाजपा नीत राजग सरकार के समय संपन्न हो चुका है।
रक्षा क्षेत्र में अमेरिकी घुसपैठ की शुरूआत
भारतीय प्रतिरक्षा क्षेत्र में अमेरिका की घुसपैठ की वर्तमान शुरुआत नरसिम्हा राव के नेतृत्व में कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में जनवरी, 1995 में संपन्न भारत-अमेरिका प्रतिरक्षा प्रारूप समझाैता आैर सुरक्षा प्रोद्यौगिकी एवं व्यापार उपक्रम (Defence Technology and Trade Initiative -DTTI) से चिह्नित की जा सकती है। जब दोनों देशों के बीच रक्षा संबंधित विषयों पर सहमति बनी थी। इसके अनुसार रक्षा नीति समूह (DPG) की स्थापना हुई। इस समूह ने भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच रक्षा सहयोग के लिए सर्वोच्च संस्थागत वार्ता तंत्र के रूप में काम किया। संप्रग-1 के समय जब वामपंथियों के समर्थन के बल पर सरकार चल रही थी, जून 2005 में, अमेरिकी -भारत रक्षा संबंध के लिए एक नए रक्षा फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे। यह समझौता 10 साल की वैधता के लिए था। यह दस्तावेज रक्षा व्यापार, संयुक्त अभ्यास, कर्मियों के आदान-प्रदान, सहयोग और समुद्री सुरक्षा में सहयोग और समुद्री डाकू प्रतिरोधी संचालन, आदि सेवा के बीच आदान-प्रदान आदि पर केंद्रित है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व काल में परमाणु अप्रसार संधि पर हस्ताक्षर तो भारत ने नहीं किए परंतु भारत के साथ असैन्य परमाणु विकास समझौता कर लिया गया था। इस समझौते के कारण भारत परमाणु विकास कार्यक्रम अमेरिकी निगरानी में आ गया है। उसी तरह रक्षा में हुए इन समझौतों के जरिए अमेरिकी सैन्य संगठन नाटो में आैपचारिक रूप से सम्मिलित हुए बिना भारत की गणना नाटो के सदस्य देशों के समक़क्ष की जाने लगी है।
अमेरिकी राजदूत केनेथ आई. जस्टर ने काॅमकासा पर हस्ताक्षर के बाद कहा है अब “अमेरिका भारत को एशिया में अपने सबसे मजबूत व भरोसेमंद रक्षा सहयोगी के तौर पर स्थापित करेगा।” हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी मंसूबों को जाहिर करते हुए केनेथ ने अपने इस वक्तव्य में बताया, “प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध यह क्षेत्र दुनिया की विशालतम तथा सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्था और सर्वाधिक जनसंख्या वाले देशों का क्षेत्र है।” इसके साथ इस क्षेत्र सामुद्रिक व्यापार की दृष्टि से बहुत से वैश्विक अहमियत रखता। है। अमेरिकी रणनीतिकार हिंद-प्रशांत क्षेत्र में आैर वैश्विक मामलों में भारत को ‘‘एक प्रमुख शक्ति’’ के रूप में विकसित करना चाहते हैं।” ट्रंप के इस प्रतिनिधि ने उम्मीद व्यक्त की है किअब भारत निकट भविष्य में रासायनिक और जैविकीय हथियारों के आस्ट्रेलिया ग्रुप में शामिल हो जाएगा। उन्होंने रक्षा सौदाें के लिए भारतीय बाज़ार की आेर ललचार्इ नज़रों से कहा है, ‘भारत की रक्षा जरूरतें बड़ी हैं, अमेरिका वैश्विक लीडर के रूप में आधुनिक सैनिक प्रौद्योगिकी विकसित कर रहा है, भारतीय सुरक्षा को बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध है। इस प्रतिबद्धता का एक प्रमुख उदाहरण था, गत जून में ट्रंप प्रशासन द्वारा सी गार्डियन मानव रहित एरियल सिस्टम की बिक्री की स्वीकृति देना है। इस आधुनिक प्लेटफॅार्म को हासिल करने वाला भारत हमारा पहला गैर-नाटो देश होगा।”
रूस से एस- 400 मिसाइल प्रणाली
काॅमकासा समझौते से संबंधित दो महत्वपूर्ण सवाल चर्चा का विषय रहे हैं। एक जमीन के साथ आकाश पर मार करने वाली एस- 400 ट्रियुम्फ वायु रक्षा मिसाइल प्रणाली खरीदने के लिए रूस के साथ 40,000 करोड़ रुपए का सौदा आैर दूसरा र्इरान से कच्चा तेल के आयात से संबंधित मसला। भारत के मीडिया ने इस तरह से इन मुद्दों को पेश किया है गोया कि भारत ने 2+2वार्ता में इन दो मुद्दों पर अमेरिका के अड़ियल रवैए को त्यागने के लिए मज़बूर किया है। समझौते के बाद पेंटागन के एशियार्इ मामलों से संबंधित प्रमुख अधिकारी के बयान से इस विषय को बेहतर समझा जा सकता है। रूस से एस- 400 मिसाइल प्रणाली की खरीद से संबंधित इस सौदे के संबंध में अमेरिकी संसद (कांग्रेस) से जो छूट के जिस प्राविधान का लाभ भारत को मिल रहा है, उसका उल्लेख करते हुए पेंटागन के इस अधिकारी ने स्पष्ट किया है, ‘अगर भारत इसके बाद रूस के साथ इस किस्म का अन्य कोर्इ बड़ा सौदा करता है तो भारत को यह रियायत हासिल नहीं होगी। कांग्रेस ने इस मामले में अभी जो छूट दी है उसके साथ कुछ सख्त शर्तें जुड़ी हुर्इ हैं, जिनमें अमेरिकी राष्ट्रपति के द्वारा इस बात को प्रमाणपत्र हर छह महीने में अमेरिकी संसद के समक्ष पेश करना भी है जिसमें बताया गया हो कि रूसी सैन्य हार्डवेयर में लगातार क्या कटौती हो रही है।” कहा गया है अब भारत की हथियारों की जरूरत को अमेरिका पूरा करेगा। यह तरीका है जिसके जरिए भारत पर अमेरिका उसके हथियार खरीदने के लिए दबाव डााल रहा है। वैसे भी भारत में हथियार के व्यापार में रूस की जगह अमेरिका प्रमुख हो चुका है। यह इसके बावज़ूद है कि अमेरिका जो हाथियार व सैन्य तकनीक प्रदान करता है वह रक्षात्मक होती है, जबकि रूस से मिलने वाले हथियारों की प्रकृति आक्रामक होती है। उदाहरण के लिए रूस ने भारत को परमाणु संचालित पनडुब्बी और एक विमान वाहक समेत आक्रामक हथियार प्रदान किए हैं। दरअसल, ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिकी कांग्रेस ने अमेरिका के प्रतिद्वंद्वियों को सजा देने के एक अधिनियम पारित किया है जिस कात्सा (CAATSA – Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act) कहते हैं। मुख्य रूप से रूस, उत्तर कोरिया आैर र्इरान इसके निशाने पर हैं। यह अधिनियम प्राथमिक रूप से रूसी हितों, जैसे कि तेल और गैस उद्योग, रक्षा एवं सुरक्षा क्षेत्र तथा वित्तीय संस्थानों पर प्रतिबंधों से संबंधित है।
र्इरान आैर भारत के बीच चाबहार बंदरगाह योजना के ठंडे बस्ते में आने की यह भी वज़ह है। यह महत्वकांक्षी योजना थी, जिसके जरिए भारत आैर अफगानिस्तान के बीच सीधे संबंध व परिवहन का नया मार्ग खुलता है। अभी पाकिस्तान के माध्यम से ही भारत के लिए परिवहन का मार्ग है। अन्य दूसरा रास्ता नहीं है। भारत की याेजना इस मार्ग के सामानान्तर रेल मार्ग विकसित करने की भी थी। भारत, ईरान और अफ़ग़ानिस्तान ने मई 2016 में इस अंतरराष्ट्रीय मार्ग को बनाने का निर्णय लिया था। तब से चाबहार बंदरगाह पर काम चल रहा था। इस मार्ग की अहमियत यह है कि यह मध्य एशिया, रूस और यहां तक कि यूरोप तक थल मार्ग से भारत की पहुंच काे मुमकिन कर देगा।
पाकिस्तान आैर चीन
अमेरिकी विदेशमंत्री माइक पोम्पे 2+2समझाैते के लिए इस्लामाबाद होकर भारत आए थे। उनके साथ अमेरिका सेना के संयुक्त चीफ ऑफ स्टाफ जनरल जोसेफ डनफोर्ड के अध्यक्ष थे। वे लगभग पांच घंटे तक इस्लामाबाद में रहे। इस दौरान उन्होंने विदेश मंत्री शाह मेहमूद कुरेशी और सेनाध्यक्ष जनरल कमर बाजवा से मुलाकात की। पाकिस्तान को अमेरिका द्वारा मिलने वाली सैन्य मदद को रोके जाने के साथ दोनों देशों के संबंधों में आए व्यवधान के संदर्भ में पोम्पे की टिप्पणी थी, “आज की बैठकों में संबंधों काे पुनर्व्यवस्थित किया है। जो गतिरोध उत्पन्न हो गया था वह खत्म हो गया है।” रॉयल युनाइटेड स्टडीज इंस्टिट्यूट नामक ब्रिटिश थिंक टैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि पकिस्तान को अमेरिका की जरूरत से कहीं ज्यादा अमेरिका को पाकिस्तान की जरूरत है।” चीन के साथ बढ़ती नजदीकियों के कारण अमेरिका इस स्थिति में नहीं है कि वह पाकिस्तान पर अधिक दबाव डाल सके। अमेरिका की सैन्य एवं आर्थिक सहायता पर पाकिस्तान की निर्भरता अब पहले जैसी नहीं है। यही वज़ह है कि अमेरिकी विदेश सचिव रेक्स टिलरसन ने दक्षिण एशिया की दीर्घावधि स्थिरता के लिए पाकिस्तान को अहम बताया है। नाटो को चिंता है कि पाकिस्तान अमेरिकी रणनीति से छिटक न जाए। यह पाकिस्तान का ही दबाव है कि अमेरिकी रक्षा मंत्री जेम्स मैटिस ने भारत से कहा है कि वह तहरीक-ए-तालिबान का समर्थन न करे, जबकि अमेरिका ने खुद कतर में पाकिस्तान समर्थित अफगान तालिबान के साथ आमने-सामने बातचीत की। यह बावजूद इसके हुआ कि अफगान तालिबान से ही नाटो सेनाआें काे अफगानिस्तान मे जूझना पड़ रहा है।
भारत की विदेश नीति आैर प्रतिरक्षा नीति को अमेरिका के लगतार पराभाव आैर उभरते हुए बहुध्रुवीयता के रुझान के आधार पर निर्धारित किए जाने की आवश्यकता है। चीन ‘हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका के खाली स्थान को भरने आैर पूरे दक्षिण चीन सागर क्षेत्र पर अपना दावा प्रस्तुत कर रहा है। चीन सागर के ऊपर हवाई मार्ग के इस्तेमाल के लिए वह उसकी पूर्व अनुमति आवश्यक बता रहा है। जिस तरह अमेरिका की वर्चस्ववादी नीति के विरोध में दुनिया भर में विरोध हुआ उसी तरह चीन की क्षेत्रीय प्रभुत्व की नीति के विरोध में हिंद-प्रशांत क्षेत्र में असंतोष है। भारत भी इस क्षेत्र में एक बड़ी शक्ति है। भारतीय शासकों की भी क्षेत्रीय प्रभुत्व की आकांक्षाएं आैर प्रयास रहे हैं। परंतु चीन आैर भारत की आर्थिक एवं सामरिक शक्ति में बहुत अंतर है। एेसे में अगर भारत अपने हितों को अमेरिका के सूबेदार की हैसियत से साधने का प्रयास करेगा तो यह भारी भूल आैर आत्मघाती कदम होगा। आर्थिक संकट से घिरे अमेरिका ने नाटो देशों तक से कह दिया है कि खर्च में वे भी अपनी भागीदारी करें, सारा ठेका अमेरिका ने नहीं लिया है। जापाान को अमेरिका की दोस्ती कितनी महंगी पड़ रही है इसका एक उदाहरण है कि अमेरिका के दबाव में ही उसे 2.1 बिलियन अमेरिकी डालर की मिसाइल-रक्षा प्रणाली खरीदने के लिए मजबूर किया गया है। वह यह इसलिए नहीं खरीद रहा है कि यह उसे मिसाइल हमलों से प्रभावी रूप से सुरक्षित कर सकती है। इसी प्रकार अमेरिका के साथ रक्षा सौदे भारत की जरूरत से अधिक अमेरिका के रक्षा उद्योग की आवश्यकाताआें आैर उसके आर्थिक संकट के लिए मददगार हैं।