
देश का शीर्ष स्तर का संस्थान “जेएनयू” जहां के हर छात्र को बौद्धिक और प्रगतिशील माना जाता है और भारत की राजनीति को उससे बेहतर कोई नहीं प्रभावित कर सकता। एक खास विचारधारा की पहचान बना चुका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में अगर अराजकता का माहौल उत्पन्न होता है, तो बेहद शर्मनाक है। लेकिन इस पूरे मामले में वायरल हुई वीडियो से जो अफ़वाह फैली है कि वहां पाकिस्तान जिन्दाबाद के नारे लगे थे, ये मेरी समझ के परे है।
दरअसल इस पूरे घटनाक्रम पर एक नजर डालें तो वह कुछ ऐसा था कि 9 फरवरी की शाम जेएनयू परिसर के अंदर कुछ छात्रों द्वारा एक सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन हुआ, जिसका संभवत: नाम “द कंट्री ऑफ अ विदाउट पोस्ट ऑफिस” जिसमे वामंपंथी विचारधारा के छात्र सम्मिलित थे और जेएन यू छात्रसंघ के अध्यक्ष , उपाध्यक्ष और अन्य लोग उपास्थिति रहे, जिन सब का उद्देश्य भारत की न्यायिक व्यवस्था पर चर्चा करना था।
यहां पर ध्यान देने योग्य ये बिंदु है, कि जब आयोजकों प्रशासन से उक्त सभा की अनुमति मिली थी और बिना किसी द्वेश, छल के वह कार्यक्रम चलना था , तब एबीवीपी के पदाधिकारी किस खूफिया सूचना के आधार पर कार्यक्रम को आरंभ होने से पहले बंद करने की मांग करने लगे और प्रशासन के सामने लामबंद दस्तक रख दी? आखिर उन सबको ऐसा क्या पता चला जो उस कार्यक्रम को अनुमति देने वाले को नही पता चल पाया?
ज्ञातव्य हो कि ये वही जेएनयू है, जहां पर इंदिरा, राहुल, से लेकर सभी का विरोध हुआ है, वो चाहे सिक्ख दंगा रहा हो, गोधरा कांड रहा हो,या मुजफ्फरनगर दंगा रहा हो। इतिहास गवाह है कि हर उस शक्ति का विरोध हुआ है, जेएनयू में जिसका आधार लोकतंत्र से परे था।
सवाल उठता है कि कहीं उस सभा में विरोधीजनो ने ऐसी स्थिति तो नहीं उत्पन्न की जिसकी समानता #राहुल_वेमुला से मेल खाती रही हो या फ़िर सत्ता पक्ष का अनावश्यक दुरुपयोग, जिससे सभा के भी छात्र असंयमित हुए हों और किसी ने कुछ विरोध पर देश से संबंधित बाते बोली हो ? क्योंकि जब से देश में दक्षिणपंथी सरकार का जन्म हुआ है, तभी से ये लोग विपरीत विचारधारा वालों को पाकिस्तान जाने का आदेश फरमाते आ रहे हैं।
हालांकि उनके इस अति-उत्साह का जनता ने माकूल जवाब भी दिया है, जनादेश के रूप में। लेकिन उनका क्या हुआ जो इन उत्साहियों के शिकार हो गये उदाहरणार्थ -प्रोफ़ेसर कलबुर्गी जो कभी देशविरोधी नही रहे थे फ़िर भी कथित हिंदूवादी संगठनो ने मार डाला और सोशल मीडिया में खुशी भी जाहिर कर ली। तमाम कवियों लेखकों और वैज्ञानिकों के विरोध के बावजूद भी आज तक उन्हे सही न्याय नहीं दिया गया।
खैर, जहां तक जेएनयू की बात है, खबर है कि वामपन्थी वहां पर अफजल की फांसी के विरोध में थे जो कि पूरी तरह झूठ दिखाई देती है, जबकि सूचनाएं इस तरह की भी हैं कि उस सभा में भारतीय न्याय व्यवस्था के उस फ़ैसले पर चर्चा हुई, जिसमे “अफजलगुरू की फांसी के बाद उसके परिजनो को उक्त घटना की जानकारी चार दिन बाद दी गई”। अगर यह परिचर्चा राष्ट्रविरोधी गतिविधि है, तो वो क्या है जो हर साल पूना में गोड़से के फ़ोटो पर माला डालकर आयोजित कर शुरुवात होती है?
आज के इलेक्ट्रॉनिक और सूचना क्रांति के युग में जब सोशल मीडिया से लेकर न्यूज वेबसाइट पर विश्व के कोने-कोने से गांधी की पुण्यतिथि पर श्रद्धांजली छपी होती हैं, तब हमारे ही देश के कथित राष्ट्रप्रेमी गांधी को गरियाते हैं, तब देश की निजता किस कोने में जाती है? जबकि गांधी की हत्या और गोड्से को लेकर कई किताबें और आर्टिकल भी छप चुके हैं फ़िर भी गोड़से के ऊपर चर्चा करने वालों पर देशद्रोह नही लगता बल्कि उनकी तो पूजा होने लगती है। यकीनन यहीं से तय होता है कि राष्ट्र के सम्मान हेतू कितना फर्क है कथनी और करनी में ।
इस रूप में देखा जाए तो जेएनयू प्रकरण में किसी जांच के बगैर छात्रसंघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार की गिरफ्तारी कई तरह के सवाल खड़ी करती है। एक तरह से देखा जाए तो पहले सरकार और खासकर पुलिस को इस पूरे मामले में जांच के बाद ही कोई एक्श्न लेना चाहिए। आखिर जेएनयू सालों से छात्र राजनीति का बहुत बड़ा केंद्र रहा है और देश व दुनिया में इस विवि की अपनी गरिमा और प्रतिष्ठा है। – चंद्रहास पांडेय