इस्लाम इंसान के जमीर (अंतःकरण) को  जीवित करता हैं।

कोहराम के लिए जुनैद टांक का लेख 

दुनिया में अलग अलग धर्म हैं और हर धर्म में अपने अपने देवी-देवता हैं। इस्लाम धर्म को छोड़कर सभी धर्मों में इष्ट यानि ईश्वर को किसी न किसी रूप में पूजा जाता हैं। लगभग सभी धर्मों में ईश्वर की कल्पना की गई है और उसके आधार पर उस धर्म को मानने वाले लोग ईश्वर की मूर्तियों का निर्माण करते हैं, उन्हें पूजते है एवं उन्हीं को मदद के लिए पुकारते हैं।

लेकिन इस्लाम को मानने वाले न तो ईश्वर की मूर्ति बनाते हैं और नाहीं किसी मूर्ति की पूजा करते है बल्कि मुसलमान तो उसको पूजते है जिसका न कोई रंग है न कोई रूप है, जो एक हैं, जिसके जैसा दुसरा और कोई नहीं हैं, जिसको किसी ने नहीं बनाया बल्कि उसी ने हर चीज़ बनाई, जो अमर है, जो सदैव रहने वाला है, जो सबका संरक्षक हैं, जो सर्वशक्तिमान हैं, जो सर्वव्यापी हैं, जो सबसे प्रशंसनीय हैं और जिसमें कोई कमी नहीं हैं। जिसको कभी किसी ने नहीं देखा है न कभी किसी ने सुना है और न कभी किसी ने छुआ हैं, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है वो तो एक एहसास है। जिसे हम अल्लाह, ईश्वर, भगवान, मालिक और खुदा जैसे नामों से पुकारते है।

मुसलमानों का ये ईमान (यकीन) हैं कि भले वो खुदा को नहीं देख सकते मगर खुदा उनको हर वक्त देखता है। मुसलमानों का ये ईमान (यकीन) हैं कि भले वो खुदा को नहीं सुन सकते मगर खुदा उनकी हर बात को सुनता हैं। मुसलमानों का ये ईमान (यकीन) हैं कि भले वो नहीं जानते कि खुदा क्या चाहता हैं मगर खुदा जरूर जानता हैं कि उनके दिलों में क्या हैं। मुसलमानों का ये ईमान (यकीन) हैं कि जब कोई भी उनके साथ नहीं होता हैं तब भी खुदा उनके साथ होता हैं। तो मुसलमानों का बिना खुदा को देखें खुदा को मानने का क्या तर्क हैं?

तो मैं आपको इसका जवाब देता हूँ। जब भी कोई व्यक्ति बुरा काम करता हैं तो वो दुनिया के सामने नहीं करता बल्कि दुनिया से छिपकर करता हैं। मतलब वह बुरा काम तब करता हैं जब उसे कोई नहीं देख रहा होता हैं। इसीलिए इस्लाम अपने अनुयायियों को ये शिक्षा देता हैं कि जिस वक्त तुम्हारे मन में कुछ बुरा करने का विचार आये और उस वक्त तुम्हें कोई नहीं देख रहा हो तब भी तुम ये ईमान (यकीन) रखना कि खुदा तुम्हें देख रहा हैं। जब तुम्हें झूठ बोलने का मन करें तो ये ईमान (यकीन) रखना कि भले जिसको बता रहे हो उसे नहीं पता कि तुम झूठ बोल रहे हों मगर खुदा सबकुछ जानता हैं।

तो ऐसे ईमान (यकीन) से जिससे इंसान बुरा काम करने से बच जाता हैं उसे ही तो दुनिया में जमीर (अंतःकरण) कहा जाता हैं। इस प्रकार इस्लाम अपने अनुयायियों को प्रशिक्षण देता हैं कि वे किस प्रकार से अपने जमीर (अंतःकरण) का प्रयोग करके अच्छे कर्म करें और बुरे कर्मों से बचें।

विज्ञान का भी यही मानना हैं कि इंसानों में अच्छे और बुरे की समझ के लिए उनका जमीर (अंतःकरण) जिम्मेदार होता हैं। दरअसल इसका वर्णन सर्वप्रथम “ओरिजिन ओफ स्पिसिज नामक पुस्तक में किया गया जो कि आधुनिक जीवविज्ञान के पिता कहे जाने वाले चार्ल्स डारविन द्वारा 1859 में लिखी गईं थीं। उनके बाद कई वैज्ञानिकों ने इस विषय में शोध किये।

सन् 2014 में ओक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने इस विषय में बहुत बड़ी सफलता प्राप्त की हैं। उनके शोध कार्य की जानकारी देते हुए प्रो. मेथियु रशवर्थ  ने बताया कि इंसानों के मस्तिष्क में “लेटरल फ्रन्टल पोलनामक एक हिस्सा होता हैं जो इंसान को सही और गलत की पहचान करवाता हैं जिसे हम English में Conscience, हिंदी में अंतःकरण और उर्दू में जमीर कहते हैं।  

इसलिए एक सच्चा मुसलमान जो कि खुदा को मानता हैं कभी कोई गुनाह नहीं करता। और जो कोई मुसलमान होकर भी गुनाह करता हैं तो समझ लीजिए वो खुदा को सच्चे दिल से नहीं मानता।

इसी प्रकार दुनिया का प्रत्येक सच्चा और अच्छा व्यक्ति चाहे वह किसी भी धर्म को मानने वाला हो अप्रत्यक्ष रूप से अल्लाह ही को अपना रब मानता है। क्योंकि वह भी अपने जमीर (अंतःकरण) की आवाज़ को सुनता हैं और बुराई से दूर रहता हैं और मुसलमान भी बिना खुदा को देखे खुदा पर ईमान (यकीन) रखता हैं और बुराई से बचता हैं। अत: दोनों ही को बुराई से उनका जमीर (अंतःकरण) ही रोकता हैं। इसीलिए तो मैंने कहा कि इस्लाम इंसान के जमीर (अंतःकरण) को जीवित करता हैं।

मोहम्मद जुनेद टाक (बाली) राजस्थान

juned.csd@gmail.com

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