मुददस्सीर अहमद क़ासमी
इंसान और जानवर में एक समानता है कि दोनों अपने जीवन की गाड़ी आगे बढ़ाने और अपने पेट को भरने के लिए किसी न किसी स्थिति में मेहनत व परिश्रम करते हैं और कड़ी मेहनत और भाग्य के बराबर ही दोनो अपने लिए प्रावधान प्राप्त कर पाते हैं। यहां से यह बात हमारे सामने आती है कि खुद के लिए जीने में आदमी और जानवर में कोई अंतर नहीं है, तो सवाल यह उठता है कि इस अध्याय में इंसान को जानवर से अलग करने वाली बात क्या है? इसका सीधा और साफ जवाब है कि मनुष्य का दूसरों के लिए जीने की भावना एक महत्वपूर्ण अंतर है जो बात जानवर के अंदर नहीं पाई जाती है। मनुष्य के अंदर मौजूद इस भावना को हम मानवता कहते हैं। अब अगर आप किसी मिल्लत, समाज और राष्ट्र में दूसरों के लिए जीने का जज्बा देखें तो आप समझ लीजिए कि वहाँ मानवता मौजूद है और अगर किसी विशेष, मिल्लत, समाज और राष्ट्र में इस भावना को नहीं देखते हैं तो आप के लिए तय करना आसान हो जाता है कि मानवता समाप्त हो गई है। मौजूदा समय की सबसे बड़ी त्रासदी यही है कि इंसान मानवता से दूर और वंचित हो गया है, इसलिए प्रत्येक संवेदनशील दिल महसूस कर रहा है कि लोगों की भीड़ में आदमियत कहीं खो गई है और आने वाला हर नया दिन मनुष्य के इस भयानक तस्वीर को दर्शाता है।
इन्हीं अमानवीय घटनाओं की एक नई कड़ी ओडिशा के दाना मांझी के साथ पेश आने वाला वह घटना है जो सभ्य भारत की छवि को दागदार ही नहीं बल्कि हमारे असमानता और भ्रष्ट व्यवस्था की कलई भी खोल दी। दलित समाज के इस लाचार व्यक्ति के दर्द को महसूस कीजिए कि वह किस तरह गरीबी की हालत में टीबी से पीड़ित अपनी पत्नी को एक सरकारी अस्पताल में भर्ती कराता है, जहां उसकी पत्नी बीमारी की ताब न लाकर इस दुनिया से चल बस्ती है, फिर व्यावहारिक रूप से इस गरीब की गरीबी का मजाक उड़ाते हुए अस्पताल के स्टाफ की ओर से शव को घर तक ले जाने के लिए एंबुलेंस की सहोलियत मुहैया नहीं कराई जाती है और उसके बाद अपनी बेबसी पर आंसू बहाते हुए वह लाचार व्यक्ति अपनी पत्नी की शव को अपने कंधे पर उठाता है और पैदल अपने घर की ओर चल पड़ता है। क्योंकि इस बेचारे को घर तक पहुंचने के लिए 60 / किलोमीटर की दूरी तय करना है इसी वजह से वह समय-समय पर अपनी पत्नी के शव को सड़क किनारै रख देता है और फिर सांस बहाल करने के बाद शव उठा कर आगे के लिए रवाना होता है। इस घटना का सबसे दर्दनाक दृश्य उस अभागे की 12 / वर्षीय बेटी का उसके साथ चलते हुए बिलक बिलक कर रोना है। इसी हालत में दाना मांझी 10 / किलोमीटर तक का सफर पैदल तय कर लेता है इस दौरान सैकड़ों लोग रास्ते में मिलते हैं जो मूक दर्शक की भूमिका निभाते हैं या अधिकतम अपनी कठोरता को बतला ते हैं मानवता को शर्मसार कर देने वाले इस दृश्य को अपने मोबाइल में कैद करके। आखिरकार मानवता की लाज रखने वाले कुछ पत्रकार आगे आते हैं और इसके लिए सरकारी कार का प्रबंधन करवाते हैं। यह है बेबसी की वह कथा जिसने केवल मानवता को ही शर्मसार नहीं किया बल्कि हमें पशु पंक्ति में ला खड़ा कर दिया।
यह घटना महज एक नमूना है, यहां तो हर रोज सैकड़ों दाना मांझी हमारी कठोरता की मार झेलते हैं और पीड़ा लगातार झेलते हैं। मौजूदा स्थिति को सामने रखते हुए आशंका है कि यह सिलसिला बढ़ता ही रहे गा अगर हमने अपने कर्तव्य निभा कर इंसान को मानवता के उच्च मूल्यों से परिचित नहीं कराया। हमें इसकी शुरूआत लोगों में समाज सेवा की भावना को उभार कर करना होगा और इस संबंध में इस्लामी शिक्षाओं हमारे लिए वास्तव में मददगार होंगी। तिर्मिज़ी की हदीस है कि नबी अकरम ﷺ ने फरमाया: “लोगों में सबसे अच्छा वह है जो लोगों को लाभ पहोनचाए।” इस मुबारक हदीस में हमारे लिए संदेश यह है कि आप को अगर अच्छाई के ऊंचे स्थान पर बैठ ना है तो दूसरों के हित के लिए काम करना होगा, क्योंकि अपने हित के लिए तो सभी काम करते हैं जो वैध सीमा तक वर्जित तो नहीं लेकिन कमाल की बात भी नहीं। गौरतलब है कि हदीस में दूसरों को लाभ पहुंचाना व्यापक अर्थ में है, यह धार्मिक, शैक्षिक, आर्थिक, राजनीतिक, आर्थिक, शारीरिक, आध्यात्मिक और वैध सीमा तक सभी लाभ को शामिल है। समय और जगह के आधार पर यह हमें तय करना है कि इस समय हमारे आसपास रहने वाले लोगों की स्थिति किस तरह के लाभ चाहते हैं और फिर शक्ति के अनुसार हमें अपनी भूमिका निभानी है, अगर हम ने दूसरों को लाभ पहुंचाना अपनी जीवन का मिशन बना लिया तो समाज से असमानता और अन्याय का ध्वस्त होना तय है।
दूसरों के लिए जीना कोई मुश्किल काम नहीं है क्योंकि खुद महान शिक्षक मोहम्मद अरबी (स.अ.व.) ने अपनी व्यावहारिक जीवन में हमें यह करके दिखला दिया है। आपﷺ ने सिर्फ मुसलमानों के लाभ पूहचाने के लिए काम नहीं किया बल्कि आप ने उन लोगों को भी अपना सहयोग दिया जो अपके कट्टर दुश्मन थे। एक बार जब मक्का में अकाल पड़ा तो मक्का के लोग दाने दाने को मोहताज हो गए, इन स्थितियों से परेशान होकर अबू सुफियान (जो तब तक मुसलमान नहीं हुए थे) मोहम्मद (स.अ.व.) की सेवा में हाज़िर हुए और बड़ी बेबाकी से कहने लगे: “मुहम्मद क्या तुझे यह बात गवारा है कि यहाँ तू आराम से बैठा रहे और तेरी प्रजा की मक्का में मौत हो, अपने भगवान से प्रार्थना कर ताकी यह मुसीबत तेरी क़ौम से दूर हो जाए।” (बुखारी) इस अवसर पर आप ने यह नहीं देखा कि मेरी दुआ मेरे दुश्मनों को फायदा पहुँचे होगा, आपने दुआ के लिए हाथ उठाया और अकाल के दूर होने की दुआ की तो आपकी दुआ के कारण मक्का में खूब बारिश हुई और अकाल दूर हो गई. इसी तरह एक अवसर पे आप (स.अ.व.) खुद बीमार यहूदी लड़के को देखने के लिए उसके घर तशरीफ़ ले गए (बुखारी)। इन हदीसों में हमें खास तौर से यह बात मालूम होती है कि धर्म, रंग, जाति को ना देखते हुए हमें सभी के लाभ के लिए काम करना चाहीए. तर्कसंगत रूप में भी यह बात सही है कि जरूरतमंद जरूरतमंद है चाहे काला हो या गोरा, मुस्लिम हो या गैर मसलम। जरूरत के समय लाभ भेजने में इस्लाम ने भेदभाव को सिरे से खारिज कर दिया है। कुरान मजीद ने स्पष्ट शब्दों में मार्गदर्शन दिया है कि अच्छाई के कामों में ही हमें मदद करना है (सूरतुल माइदा आयत 2)।
सभी सरकारी अधिकारियों के लिए विशेष रूप से खलीफा उमर की व्यावहारिक जीवन इस अध्याय में पैमाना है, कि एक तरफ विशाल क्षेत्रफल में सरकार थी और दूसरी तरफ आप का ये आलम था कि आप खुद विधवाओं की खबर लिया करते थे, कंधे पर पानी का बर्तन रखकर उनके लिए पानी लाते थे, जरूरतमंदों के लिए बाज़ार से सौदा सलफ खरीद कर लाया करते थे और फिर उसी हालत में मस्जिद नबवी के किसी कोने में फर्श पर आराम फरमालीते थे, हज़रत उमर यहां तक कहा करते थे कि अगर फुरात नदी के किनारे भी एक कुत्ता प्यासा मर गया तो कल क़यामत के दिन इसके बारे में उम्र से पूछ होगी। इसी तरह एक बार आप एक गैर मुस्लिम बुजुर्ग शखस को भीख मांगते हुए देखा तो कहा कि ख़ुदा की क़सम यह न्याय नहीं कि किसी की जवानी की कमाई तो हम खाओ और बुढ़ापे में इसे अकेले छोड़ दें, और आपने उसके लिए सरकारी सहायता जारी करदया। हज़रत उमर ने खुदा के बन्दों के लिए सेवा का जो मानक स्थापित किया है वह क़यामत तक के लिए प्रकाशस्तंभ है और इससे दूसरों के लाभ के लिए काम करने का जबरदस्त उत्तेजना मिल्ती है। सारांश यह है कि दूसरों की भलाई के लिए काम करना इस्लाम के आधार में है, इससे मनुष्य केवल दूसरों की निगाह ही में प्रिय नहीं बनता बल्कि अल्लाह तआला के विशेष रहमत का हकदार हो जाता है मानो कि दूसरों की जरूरत में काम आना दीन व दुनिया में सफलता का कारण है। इसलिए अगर हम दोनों जहान की भलाई चाहते हैं तो अल्लाह के प्राणी (मख़लूक़ ) की भलाई के लिए काम करना अपने लिए अनिवार्य समझें.
(लेखक मरकज़ुल मआरिफ़ एजुकेशन एंड रिसर्च सेण्टर मुम्बई मैं लेक्चरर और ‘ईस्टर्न क्रिसेंट’ मैगज़ीन के असिस्टेंट एडिटर हैं। mudqasmi@yahoo.com)