पहले खतरों से खेलने का शौक और फिर खुद उस खतरे की जद में आ जाना, ये अमेरिका की आदत है। बुरी आदतें जल्द बदल देनी चाहिए, लेकिन अमेरिका शायद संभलने को तैयार नहीं है। एक बार फिर हेडली की गवाही अमेरिका से वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए हुई और इसकी भी वजह यही थी कि अमेरिका खुद आतंक की जद में आया और जब हेडली से पूछताछ की गई तो 26/11 के आतंकियों का सच सामने आया। गौर करने वाली बात ये है कि अमेरिका ने ही पूरी दुनिया में आतंक की नई पौध दी और आज वही आतंक के निशाने पर है।
दूसरी अहम बात ये कि बेशक वो आतंक से लड़ने की बात कहता है, लेकिन दूसरी तरफ पाकिस्तान जैसे देश के हाथों में F16 जैसे खतरनाक लड़ाकू विमानों का जखीरा बढ़ाता जा रहा है। ये वही अमेरिका है, जिसकी भीख पर पाकिस्तान पल रहा है। अमेरिका की इस आदत को भी समझना होगा कि वो पहले देशों को उकसाता है, एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करता है और फिर जब उसके लिए ही उसके बनाए आतंकपरस्त खतरा बन जाते हैं तो वो उन्हें खत्म करने में जुट जाता है।
अयातुल्ला खुमैनी से डरकर अमेरिका ने पहले सद्दाम हुसैन को उकसाया और मदद दी। ईरान-इराक की पहले से चली आ रही खींचतान का फायदा अमेरिका ने उठाने की कोशिश की। दस साल तक ईरान-इराक की लड़ाई चलती रही। ईरान तो पूरी तरह से बर्बाद और कमजोर हो गया, लेकिन तब तक अमेरिका इराक को इतने हथियार दे चुका था कि सद्दाम हुसैन खुद ही निरंकुश शासक बन बैठा। तेल की ताकत के साथ-साथ हथियारों की ताकत ने सद्दाम को ही एक बड़ी ताकत बना दिया। इसके बाद अमेरिका ने शुरू किया सद्दाम का काम तमाम करने का खेल।
वरिष्ठ पत्रकार राजेंद्र माथुर ने लिखा था कि भारत और पाकिस्तान के संबंधों को मजबूत करना है तो उन नालियों को साफ करना होगा जहां नफरत के मच्छर पैदा हो रहे हैं। माथुर साहब कि इस बात को यहां रखें तो आज ये कहना गलत नहीं होगा कि इन नालियों का रखरखाव अमेरिका जैसे मौकापरस्त देश अपने फायदे के लिए कर रहे हैं।
अमेरिका ने आतंक के खिलाफ लड़ाई के नाम पर दूसरा बड़ा युद्ध अफगानिस्तान के खिलाफ छेड़ा। अफगानिस्तान में जब रूसी फौजों ने अपनी पैठ जमाना शुरू किया, तो अमेरिका ने वहां तालिबान को पालना-पोसना शुरू कर दिया। दरअसल ये लड़ाई दो ताकतों के बीच दक्षिण एशिया में अपनी पकड़ मजबूत करने की थी। ताकत की इस लड़ाई में इन देशों के लोगों को गाजर-मूली की तरह कटने दिया गया।
अफगानिस्तान पर जब अमेरिका के दिए हथियारों से ही तालिबान ने पूरी तरह कब्जा कर लिया तो वो अमेरिका की पकड़ से बाहर हो गया। फिर एक वक्त वो भी आया जब तालिबान ने अमेरिका को ही काट लिया। 9/11 के हमले के बाद अमेरिका पूरी तरह से बौखला गया। जिन अफगानियों के पास खाने को रोटी के लाले थे उनके हाथ में बंदूक किसने दी? ये अमेरिका ही है जो अपने ताकत के खेल में अदूरदर्शी फैसले लेता है।
आतंकी किसी के सगे नहीं होते हैं। इक्का-दुक्का आतंकियों को पकड़ने भर से ही बात नहीं बनने वाली है। उन्हें कौन पाल पोस रहा है, जाहिलों और भूखों के हाथों में कौन बंदूकें दे रहा है, इस पर भी गौर करना होगा। दुनिया में निवेश करने वाले देश बहुत कम हैं जबकि ज्यादातर देश जरूरतमंद ही हैं।
भारत एक ऐसी अर्थव्यवस्था है जो बड़ा बाजार मुहैया कराता है और साथ ही हमारे पास सस्ता और बहुतायत श्रम भी है। इस देश में स्किल डेवलपमेंट जैसे प्रयास बहुत सकारात्मक लगते हैं। लेकिन आज हम भी आतंक के साए में जीने के मजबूर हैं, और इसकी वजह भी है नापाक पड़ोसी को मिलने वाली मदद। अमेरिका, चीन और रूस तीनों की पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर पकड़ बनाए रखने की लड़ाई चलती रहती है। रूस भी इस मामले में पीछे नहीं है, चाहे सीरिया का मसला हो या अफगानिस्तान की लड़ाई हो रूस ने भी अपनी ताकत दिखाते रहने की कोशिश की है।
आज स्थिति ये है कि पाकिस्तान को मदद देने की होड़ लग गई है। अमेरिका और चीन तो उसके मददगार थे ही अब रूस भी दक्षिण एशिया पर अपनी पकड़ बनाने के लिए उसकी मदद करने को आगे आ गया है। हालांकि ये कोई सामरिक डील नहीं है, बल्कि गैस पाइपलाइन डालने में रूस पाकिस्तान की मदद कर रहा है, लेकिन फिर भी रूस से रिश्तों की ये मजबूती चीन और अमेरिका की पाकिस्तान में बढ़ती दखल का नतीजा है।
अफगानिस्तान पर काबू रखने के लिए दक्षिण एशिया में पाकिस्तान अमेरिका के लिए एक बड़ा बेस है। चीन भारत के खिलाफ चालें चलने और अपनी जमीन, समंदर और पहाड़ों को बढ़ाने के लिए पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा है। इन परिस्थितियों में देखा जाए तो कोई भी पूरी तरह से भारत का दोस्त दिखाई नहीं पड़ता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तूफानी विदेशी दौरे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संबंधों को मजबूत करने की भारत की कोशिशों को ही दिखाते हैं।
पूरी दुनिया जानती है कि पाकिस्तान की जमीन का इस्तेमाल भारत में आतंकवाद को बढ़ावा देने के काम में किया जा रहा है। ये कहानी भी कोई नई नहीं है, अमेरिका जैसे देश अपने स्वार्थों को साधने के लिए पाकिस्तान की मदद करते हैं और फिर पाकिस्तान ऐसे आतंकी संगठनों और लोगों को इसी पैसे से शह और हथियार देता है। अस्सी के दशक में फैला खालिस्तान आतंकवाद हो या 90 के दशक में जम्मू कश्मीर में फैला आतंकवाद पाकिस्तान की जमीन का आतंकवादी कार्रवाइयों के लिए प्रयोग होता रहा है।
पाकिस्तानी जमीन पर आतंकवादी कैंप और हाफिज सईद, लखवी जैसे आतंकियों का वहां खुलेआम घूमना भी अमेरिका के दोहरे रवैये को दिखाता है। एक तरफ अमेरिका हाफिज सईद को अंतरराष्ट्रीय आतंकी घोषित करता है तो दूसरी तरफ पाकिस्तान उसे सामाजिक कार्यकर्ता बताता है। अमेरिका उस पर ईनाम की घोषणा तक करता है लेकिन साथ ही साथ पाकिस्तान को आर्थिक मदद भी देता रहता है।
अमेरिका की ये मदद और यही दोहरा रवैया भारत में आतंक के पनपने की भी वजह है। एक बार फिर पाकिस्तान को F16 लड़ाकू विमान देकर अमेरिका ने ये साबित कर दिया है कि उसे पाकिस्तान या भारत की कोई चिंता नहीं है। वो पूरी तरह से अपनी स्वार्थ सिद्धि में जुटा हुआ है। ये भी सच है कि जैसे अपने आस्तीन के सांपों से अमेरिका कई बार डसा गया है वैसे ही वो पाकिस्तान के हाथों भी जल्दी ही चोट खाएगा। इस बीच आतंक को झेलने के अभ्यस्त हो चुके हिंदुस्तान के सामने कूटनीति के साथ-साथ चीन की तरह खुद को आर्थिक शक्ति बनाने की भी चुनौती है।
पाकिस्तान भारत के लिए सिरदर्द इसलिए भी है क्योंकि न तो उसकी सोच तरक्की पसंद है न ही उसकी राजनीति में तरक्की दूर-दूर तक कहीं दिखाई पड़ती है। जिया उल हक ने जब सत्ता कब्जाई तो जुल्फिकार अली भुट्टो को सूली पर लटका दिया और उसके बाद से इस तरह की राजनीति पाकिस्तान की जरूरत सी मान ली गई। ये सिलसिला मुशर्रफ के सत्ता कब्जाने से बेनजीर की हत्या तक चला है। वर्तमान हालात में एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्हें इसी मुशर्रफ ने देश छोड़ कर भागने पर मजबूर कर दिया था। नवाज से बेहतर कौन जानता है पाकिस्तान की राजनीति पर सेना और आतंकियों की पकड़। राहिल शरीफ उन्हें गाहे-बगाहे आंखें दिखाते रहते हैं।
पाकिस्तान की इस आंतरिक राजनीति को भी पालने-पोसने वाला अमेरिका ही है। किसी देश का सेनाध्यक्ष अपने प्रधानमंत्री के बाद विदेशी दौरों पर जाए और वो भी बिना सरकार से सामंजस्य बैठाए तो इसे क्या कहा जाएगा? अमेरिका ने अपने हितों के लिए पाकिस्तान की फौज से भी सीधे संपर्क साध रखा है।
पाकिस्तान की सेना वहां पर आतंकवाद को कैसे पोषित करती है इसका सबसे बड़ा उदाहरण है ओसामा का ऐबटाबाद में रहना जहां उसके मारे जाने से ठीक चार दिन पहले तत्कालीन सेना प्रमुख कयानी ने परेड की सलामी ली हो। अमेरिका का मोस्ट वॉटेंड वहां पल रहा था जहां अमेरिका लगातार पैसा भेज रहा है। अमेरिका को इसकी जानकारी नहीं रही होगी? खैर ये सब बहस का अलग मसला है लेकिन एक बात तो तय है कि अमेरिका अपने हितों को साधने में किसी भी हद तक जा सकता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय कूटनीति को देखते हुए भारत को पाकिस्तान से ज्यादा अमेरिका से सतर्क रहने की जरूरत है। पाकिस्तान का मुखौटा लगाकर दरअसल अमेरिका भारत पर दबाव बनाए रखने की राजनीति करता रहता है। – डॉ. प्रवीण तिवारी