बाबरी मस्जिद की शहादत- वर्तमान सांप्रदायिक दंगों और नफरतों की बुन्याद

बाबरी मस्जिद के शहादत की 24 वीं वर्षगांठ पर हम भारत के सुप्रीम कोर्ट से जल्दी निर्णय सुनाने की अपील करते हैं, ताकि राजनीतिक माफियाओं को धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं के साथ खेल खेलने से रोक जा सके।

 

मुददस्सीर अहमद क़ासमी
मुददस्सीर अहमद क़ासमी

6/ दिसंबर की तारीख हिंदुस्तानी मुसलमानों के लिए एक डरावने सपने की तरह है क्योंकि इसी दिन शांति के दुश्मन हिंदू आतंकवादियों ने सदियों से खड़ी मुसलमानों के उज्ज्वल इतिहास की गवाह बाबरी मस्जिद को शहीद कर डालाथा और यही वह दिन था जब महान भारत में हिंदू और मुसलमानों के बीच नफरत की मज़बूत दीवार खड़ी कर दी गई थी, इसलिए विचारक और बुद्धिजीवी उसी दिन को मौजूदा संघर्ष, सांप्रदायिक दंगों और नफरतों की बुन्याद मानते हैं।

जब कानून के रखवाले ही कानून की सर्वोच्चता को चुनौती देने लगें तो फिर इन्साफ की उम्मीद करना रेत से प्यास बुझाने के बराबर हो जाता है। जी हां हमारे इस देश में ऐसा ही होता दिख रहा हे, बाबरी मस्जिद और राम जन्मभूमि मंदिर के हवाले से न्यायालय के विवादास्पद फैसले के बाद एक बार फिर से बाबरी मस्जिद का मुद्दा अदालत में है और अंतिम फैसला आना अभी बाकी है लेकिन इसके बावजूद आर एस एस और उसकी हमनवा हिंदू संगठनों के साथ साथ भाजपा पार्टी के कुछ नेता भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित मामले को पीछे डाल कर अयोध्या में मंदिर निर्माण को लेकर आए दिन भड़काऊ बयान जारी करते रहते हैं।

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हालांकि बाबरी मस्जिद के बारे में बहुत कुछ लिखा जा चुका है और इस मामले में अब ज़ियादा लिखने की जरूरत नहीं है, लेकिन जब भी फितना पसंद लोगों द्वारा इस मामले को उछाला जाता है और अलोकतांत्रिक रुख देने की कोशिश की जाती है तो यह जरूरी हो जाता है कि छवि की सही दिशा प्रदान कर दिया जाए ताकि हम में से कोई भी निरक्षर न रह जाए।

सवाल यह है कि आखिर संघ परिवार के लोग न्यायालय पर भरोसा न करते हुए क्यों मामले को अपने हाथ में लेना चाहते हैं? उसकी वास्तव में दो कारण हैं। (1) एक तो यह कि उन लोगों को न्यायपालिका पर भरोसा नहीं है और वे कार्य योजना से न्यायपालिका की सर्वोच्चता को स्वीकार नहीं करते हैं। (2) और उसकी दूसरी और महत्वपूर्ण कारण यह है कि उन्हें यह विश्वास हो चला है कि कभी भी फ़ासिस्ट ताकतों के पक्ष में अदालत का फैसला नहीं आ सकता, क्योंकि फिर से  अगर मज़हबी भावनाओं को निर्णय का आधार न बनाया गया तो सबूत ना होने के आधार पर ज़्यादह उम्मीद ये है कि यह फैसला मुसलमानों के पक्ष में होगा।

आम भारतीय नागरिक के लिए फ़िक्र और परेशानी की बात ये है की बाबरी मस्जिद को लेकर संघ परिवार न्यायालय की प्रतिष्ठा को आहत करते फिर रहते हैं। किया जनतंत्र की इतिहास में उसकी कोई और उदाहरण है के अदालत में चल रहे मामले को अलोकतांत्रिक तरीके से खुद को हल करने की कोशिश की गई हो? यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल यह उठता है कि क्या हमारे देश की न्यायपालिका इतनी कमजोर है कि वह इस तरह के संवेदनशील मामले पर स्वचालित निर्णय लेने में सक्षम नहीं है? अगर मामला ऐसा नहीं है तो फिर क्यों सरे आम अदालत की अवमानना करने वालों को पकड़ में नहीं लाया जाता?

जो समस्या पूरे देश से जुड़ा हुवा हो उस समस्या को तथाकथित प्रतिनिधि बनकर अगर एक दो लोग सुलझाने की बात करें तो यह निश्चित रूप से हास्यास्पद है, अगर कुछ लोग मिल कर हर विवादास्पद मुद्दे को हल कर लेते तो अदालत की जरूरत ही बाकी नहीं रहती, मूर्ख लोगों की दुनिया में रहने वाले आपसी मेल जूल की भी बात करते हैं, लेकिन वो भी एक तरफ़ा, किया खूब फलसफा है कि आपसी बातचीत से मामले को हल कर लेंगे लेकिन मंदिर ही बनाएँगे। अगर ऐसा ही करना चाहते हैं तो फिर आपसी बातचीत के इस ढोंग की जरूरत ही क्या है? सरकार के अंदर और एक नई सरकार को लोकतांत्रिक व्यवस्था में कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, तो यह क्या तमाशा है कि एक तरफ हमारे देश में मज़बूत लोकतांत्रिक व्यवस्था और न्यायपालिका मौजूद है उसके बावजूद सिर फिरे लोग मामले को अपने हाथों में लेकर सरकारी सिस्टम को चलैंज करते रहते हैं? अप्रशिक्षित ऐसा तो नहीं कि सरकार के नशे में मस्त कुछ बेवक़ूफ़ लोग यह सोच रहे हैं कि सत्ता पर कब्जा कर लेने के बाद आप जो चाहे कर सकते हैं, अगर ऐसा है तो उन्हें यह पाठ पढ़ा दिया जाना चाहिए कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसा करना आत्महत्या के बराबर है और ऐसा केवल एक तानाशाही कर सकता है जो अपनी ताकत के नशे में चूर होता है।

तथ्य का अगर समीक्षा की जाए तो हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि 24 / वर्ष से भी अधिक समय किसी मामले को हल करने के लिए अपर्याप्त नहीं हैं, आखिर फिर न्यायपालिका बाबरी मस्जिद मामले में निर्णायक निष्कर्ष पर पहुंच ने मैं असमर्थ क्यों है? दो ही बात हो सकती है या यह कि राम जन्मभूमि के अस्तित्व का सबूत होगा या कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर को तोड़कर नहीं बनाई गई तीसरी कोई और शक्ल नहीं हो सकती, और यह कि अगर विरोधी पार्टी बाबरी मस्जिद की जगह राम जन्मभूमि को साक्ष्य के आधार पर साबित नहीं कर पा रहे हैं तो फैसला बाबरी मसजदिे के पक्ष में हो जा ना चाहए, कहीं ऐसा तो नहीं कि शीर्ष अदालत को अज्ञात कारणों के आधार पर निर्णय लेने में देरी हो रही है?

बाबरी मस्जिद के मामले में मुसलमानों के दो स्पष्ट स्टैंड  हैं, एक धार्मिक दृष्टि से और एक बतौर भारतीय होने के। (1) धार्मिक दृष्टि से स्टैंड यह है कि ऐतिहासिक साक्ष्य के आधार पर मस्जिद क़ब्ज़ा की हुई पृथ्वी पर निर्माण नहीं हुई है इसीलिए बाबरी मस्जिद क़यामत तक मस्जिद ही रहेगी क्योंकि मस्जिद की शरई हैसियत यह है कि वे नींव के बाद से क़यामत तक मस्जिद ही रहती है चाहे लंबे वक़्त गुजरने की वजह से कमज़ोर हो जाए या किसी हमले की शिकार बन जाए और चाहे दुश्मनों के कब्जे में चली जाए या सुरक्षा के नाम पर इसे बंद कर दिया जाए। (2) और बतौर भारतीय मुसलमानों को न्यायिक प्रणाली पर पूरा भरोसा है इसलिए मुसलमान अदालत के फैसले के इंतजार में हैं, शीर्ष अदालत से जो भी फैसला आएगा वह मुसलमानों के स्वीकार्य होगा। हाँ यह अदालत की जिम्मेदारी है कि वह अपने निर्णय का आधार सबूत को बनियाए न कि धार्मिक भावनाओं (आस्था) को, यहाँ यह स्पष्ट रहे कि भारतीय संविधान के संदर्भ में भी मुसलमानों का हक बनता है कि उन्हें अपनी इबादत गाहों से वंचित न किया जाए क्योंकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 30 के तहत मुसलमानों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता प्राप्त है।

यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि जिस धरती पर न्याय की सर्वोच्चता स्थापित करना एक सपना बन जाता है उस धरती पर शांति के लिए किए गए प्रयासों का जनाज़ा निकल जाता है और जिस धरती के रहने वाले शक्तिशाली लोग न्यायपालिका के निर्णय को गलत तरीके से प्रभावित करने की कोशिश करते हैं उस धरती पर निर्बलों को न्याय मिलना एक असंभव प्रक्रिया बन जाता है। इस संदर्भ में तत्कालीन में हमारा देश शक्तिशाली लोगों की चपेट में है, ऐसे कितने ही मामले हैं जिसमें राजनीति की आड़ लेकर अपराधि सम्मानजनक नागरिक बनते फिर रहे हैं और ऐसे भी कितने मामले हैं जिसमें कमजोर लोग सलाखों के पीछे अपने आँसू को सूखा चुके हैं।

अगर दर्दनाक कहानी को बयान कर दिया जाए तो बात खास तौर से 1989 के भागलपुर सांप्रदायिक दंगे और 6 / दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद की शहादत से शुरू होकर 2002 के मानवता को शर्मसार कर देने वाले गुजरात दंगे, 2013 के मुजफ्फरनगर दंगे और 2015 के दादरी हादसा से होकर बेगुनाहों के फर्जी एनकाउंटर तक (बात) पहुंच जाती है।

देश के इतिहास को एक भयानक मोड़ देने वाले इन घटनाओं की तह में जाकर अगर समीक्षा की जाए तो यह कड़वी बात सामने आती है कि इन सभी मामलों की कड़ी दो तरह के लोगों से जाकर मिलती है, उनमें से एक नेताओं का वर्ग है और दूसरा वर्ग पुलिस सेवा से जुड़े लोगों का हे, कियोंकि इन दोनों वर्गों से निपटना जनता की पहुंच से बिल्कुल बाहर है इसलिए न्यायपालिका की सर्वोच्चता वक़्त की एक बड़ी ज़रूरत है ताकि असल मुजरिमों तक पहोंच कर उन्हें उनके अपराध के बदले सजा देकर न्याय किया जासके। इसी के साथ बाबरी मस्जिद के शहादत की 24 वीं वर्षगांठ पर हम भारत के सुप्रीम कोर्ट से जल्दी निर्णय सुनाने की अपील करते हैं, ताकि राजनीतिक माफियाओं को धर्म के नाम पर लोगों की भावनाओं के साथ खेल खेलने से रोक जासके।

लेखक मरकज़ुल मआरिफ़ एजुकेशन एंड रिसर्च सेन्टर मुम्बई मैं लेक्चरर और ‘ईस्टर्न क्रिसेंट’ मैगज़ीन के असिस्टेंट एडिटर हैं

 

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