भारत , भाजपा और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद – भाग 3

भारत का अधिकांश जनमानस समझता है कि कांग्रेस ही पुरानी और राजनीतिक पार्टी है और वही देश की राजनीतिक पहचान है. पर सच तो यह है कि इस देश की नफरत और द्वेष की राजनीति की जड़ें भी बहुत गहरी हैं, जिसको हिंदूवादी फिरकों ने खूब समझा और आजादी से पहले से ही इसकी शुरुआत कर दी थी.

कांग्रेस तो भारतीय समाज की समझ के बजाय आंग्ल समझ से प्रभावित थी और बंटवारे के बाद बचे टुकड़े पर मिलीजुली राय समझ के बूते वो शासन चलाती आयी. ये कुछ भारतीय समाज की सादगी की भी ताकत थी.

जब गुरुदत्त ने नेहरु के नेतृत्व की विफलता को अपनी फिल्म प्यासा में “ये महलों ये तख्तों ये ताजों की दुनियाँ, ये दुनियां अगर मिल भी जाये तो क्या है” गाने में भीतरी भारत के उस समय की खोखलेपन और बेकारी की विभिषिका को दिखाया तो गुरुदत्त के चाहते न चाहते भी ये फिल्म भारतीय सिनेमा का मील का पत्थर बन गयी. नेहरु के समाजवाद के मुंह पे ये फिल्म मुझे तो तमाचा लगी थी, बाकी किसने उसमें क्या देखा मुझे नहीं पता.

सन पिचासी से बयानबे तक के सात साल तक के वक्त में संघ की ताकत में अचानक इजाफा हुआ. टीवी पर रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों ने, रामलीला देखकर संतोष करती जनता ने, सिने तकनीक से खुट्टल तीरों को पैट्रियट और स्कड मिसाइलों से उन्नत और मेगार्स्माट देखा तो इस वर्चुअल मिथक ने रामायण और महाभारत के कथाभासी मिथक को मिलाकर कथा पोथी चुटिया बोदी वाले हिंदू समाज में कुछ नहीं, बहुत कुछ बलबला आया. भाजपा की भड़काउ राजनीति ने इसमें क्षत्रिय राजाओं की वीरता भरी कथाऐं और जोड़ दी (हांलांकि क्षत्रिय राजा भी अय्याश और बकैत ठस बर्बर थे). अब इस उभार और बलबले के लिए एक आंदोलन चाहिए था और बाबरी मस्जिद सामने रखी थी. जबर मदांध के हाथ में जलता लुकाठा हो सामने गरीब का छप्पर हो तो लंकाकांड होना तय होता है.

सभ्य समाज के वानरीकरण का काम भाजपा पूरा कर चुकी थी. गांधी के तीन बंदरों की कहानी से इतर ये कटखनी रैबीज वायरस भरे घुड़कीबाज वानरों की जमात थी. ये उजाड़ना जानती थी, तामीर के लिए इसे ध्वंस चाहिए था, मलबे के ढेरों पर इनके विजय पताकाओं की पुरानी परंपराऐं जीवित हो गयीं थीं.

अब जब भगवा परवान चढ़ा तो अब इस्लाम को भी संकट में आना ही था, मुहम्मद, हसन, हुसैन, हजरत से आगे बढ़कर मंगोल, अहमद शाह अब्दाल्ली, तैमूर, नादिरशाह, गजनी, औरंगजेब, यूं समझिए पूरी मुगलिया सल्तनत का इतिहास याद आना ही था” कि 56 मुल्कों पर राज करने वाली ये कौम आज इस कुगत को क्यूं पहुंच गयी?”

भारतीय समाज के फासीवादी ध्रुवीकरण के युग की औपचारिक शुरुआत हो चुकी थी. इसके उभार के बाद 22 दलों की सरकार हमने देखी. कांग्रेस के कट टू साइज की शुरुआत हो गयी. सबसे अधिक हास्यास्पद नारा भी तो कांग्रेस ने इसी दौर में दिया- “अपना जन जन से नाता है, सरकार चलाना आता है.” 400से ज्यादा सीटें जीतने, 45 साल राज करने के बाद कांग्रेस को बताना पड़ रहा था कि ‘राज चलाना आता है’.

अगर ओमप्रकाश केजरीवाल साब की बात मानें तो पच्छिम का कहना था “भारत के पास अतीत है, इतिहास नहीं. “यहां तो वाचिक परंपरा थी और इतिहास बोध के नाम पर मिथकों का महिमामंडन था. अगर सर विलियम जोंस के अथक अध्यवसायी प्रयास न होते बंगाल एशियाटिक सोसाइटी द्वारा इतिहास का संरक्षण न किया गया होता तो आज हम मुगल पूर्व की किसी भी सूचना के लिए तरस गये होते”.

तिथि तारीखवार राज के कामकाज के लेखे रखना मुगलों का काम था. इनके तो ये हाल थे कि इनके लिए अशोक की लाट भी भीम की गदा थी, दुनियां भर में द्वारकाऐं थी, जगह जगह सीता की रसोइयाँ थी. इंद्र ने ईर्ष्यावश कुछ किलों को नहरों को नष्ट कर दिया था, जगह जगह अर्जुन अपना गांडीव छुपाता फिरता था आदि आदि.

जैमिनी, बादरायण, कणाद जैसे विज्ञ लोग और न्याय, सांख्य, वैषेशिक और कुछ हद तक जैन दर्शन प्रगतिशील थे पर तर्क-विज्ञान आधारित ज्ञान की इस धारा को बजाए प्रयोगों के जरिये आगे बढ़ाने के टंन टंन टंन पूं पूं पूं कर पूजना शुरु कर दिया अर वैज्ञानिक थ्योरम को मंत्र बताकर प्रवचन करने की बेशर्मी अधकरचरी आस्था पद्धति ही कर सकती है.

जब राम मंदिर के बाद भगवा उभार आया तो अब भगवा गमछों का बाजार बढ़ गया, उधर मुसलमानों में भी पहनावों के प्रति चेतना बढ़ी हरे अमामे वाले दिखने लगे. कंधे में रुमाल पठानी सूट, जिसमें मरियल हडियल शरीर वाला मुसलमान भी अपने आप को अफगान का पठान समझता था. वे अरब के पहनावे की नकल करने लगे बसरा और दमिश्क के मुसलमान जैसा दिखने बोलने के नकलची प्रयास करने लगे और कांग्रेसी सेक्यूलर तिरंगा गमछा डालने लगे. कांवड़ियों के लिए तो कपड़ों की भगवा गारमेंट इंडस्ट्री है. बाकायदा रामदेव नुमा लोग तो भगवा ट्रैक सूट मेँ सुबह दौड़ते हैं. बाजार को तो हर चीज मेँ पैसा दिखता है. यही सरमायेदारी का जीवन मंत्र है.

बाकी धरम वाले क्यों पीछे रहते हर शहर में धार्मिक गोलबंदियां होने लगी झांकियां निकलने लगीं बनियों के अग्रसेन महाराज और जैनियों के फलाना ढिमाका मुनि आदि,

एक बार तो दो एकदम नंगे लोग और उनके पीछे चार पांच सौ महिला पुरुषों की भीड़ गाती नारे लगाती आ रही थी. पहले तो समझ नहीं आया कि ये क्या हुआ? क्या जनता ने नेताओं के ये हाल करने शुरु कर दिये? पर बाद में पता चला कि ये तो दिगंबर जैन मुनि पुष्पदंत सागर और उनके साथी मुनि हैं. एक हजार आठ और दस हजार आठ की उनकी बड़ी छोटी उपाधियां थीं. खैर बाद में पता चला उनकी नग्नता बच्चों जैसी पवित्र थी, पर शरीर बड़े थे. बाद में एक जैन मुनि पर यौन शोषण के इल्जाम लगे. ये साब बाकायदा सेविकाओं के मासिक चक्र के कलेंडर सहेज कर रखे थे.

बाबरी मस्जिद कांड के बाद छिछोरा हिंदूवाद समाज के सामने था. मनोज कुमार यानि भारत कुमार के भारतीय सर्वधर्म साफ्ट देशभक्ति के इतर अब सनी देयोल कट खूंखार देशभक्ति की फिल्में आने लगी- “दूध मांगा तो खीर देंगे, कशमीर मांगा तो चीर देंगे.” जैसे डायलाग भाजपा के दीवारु नारे बनने लगे. “सारे लोग सीमा पर सू सू कर दें तो पाकिस्तान बह जायेगा.” डायलाग वाली सनी देयोल की फिल्मों में खूब सीटीयां बजतीं, दांत किटकिटाता. बबासीर में हगते समय विकृत मुंह हो जाता है, ऐसे मुंह वाला हीरो अब खून खच्चर वाला गालीबाज शोहदा बन चुका था.

भाग – 1 

भाग – 2 

दीप पाठक
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