कहते हैं कि कभी-कभी इतिहास बहुत जालिम बन जाता है। उसके पास आंखें होती हैं और कान भी, मगर वह कुछ बातें देख नहीं पाता, असलियत बता नहीं पाता।
अतीत की कई आवाजें उसके कानों तक पहुंच नहीं पातीं। ऐसा शायद इसलिए होता है क्योंकि वक्त के साथ लोग ही जालिम हो जाते हैं और इतिहास जब मजबूर हो और मजबूरी जब खुद को जिंदा रखने की हो तो उसे जालिमों से जिंदगी का हुनर सीखना पड़ता है।
यह बात मैं एक प्रसिद्ध वीरांगना के हक में कह रहा हूं, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि इतिहास ने उनके साथ पूरा इन्साफ नहीं किया, उनकी कहानी लोगों तक पहुंच नहीं पाई। वजह क्या रही होगी, यह इतिहास ही जाने।
मैं बात कर रहा हूं बेगम हजरत महल की। अगर आप और मैं 1857 की क्रांति के जमाने में होते तो शायद उनके बारे में और बेहतर जानते। अब तो सिर्फ कुछ किताबें हैं और एक कब्र, जो इस बहादुर महिला की कहानी कहती हैं, बस कोई सुनने वाला चाहिए।
अवध के नवाब वाजिद अली शाह इनके पति थे। जब अंग्रेजों ने अपनी कुटिल नीतियों से अवध पर कब्जा जमाकर वहां कंपनी सरकार की हुकूमत कायम की तो वाजिद अली शाह कलकत्ते की जेल में कैद कर दिए गए।
इस घटनाक्रम का बेगम हजरत महल को दुख तो बहुत था, मगर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने प्रथा के अनुसार अपने बेटे बिरजीस कद्र को सिंहासन पर बैठाया और गोरी हुकूमत को चुनौती दी। अंग्रेज बड़े जालिम थे। अपना पलड़ा भारी होने पर उन्होंने बड़े पैमाने पर लोगों को फांसियां दीं। उन्हें हिंदुस्तान की मिट्टी से कोई मुहब्बत नहीं थी।
बेगम जानती थीं कि अगर अंग्रेजों के हाथों शिकस्त हुई तो सिर्फ मौत का तोहफा मिलेगा। इस बात की परवाह न करते हुए उन्होंने लोगों को एकजुट किया और अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी। उनके नेतृत्व में हिंदू-मुस्लिम सभी ने खुशी-खुशी दुश्मन से मुकाबला किया।
उनकी नेतृत्व क्षमता से अंग्रेज भी हैरान थे। ब्रिटिश महारानी तो अपने महलों में शोभा पाती थी, नर्म बिस्तरों पर सोती, बहुत नजाकत के साथ रहती थी। ऐशो-आराम के सभी साधन उसके पास थे। जंग का मैदान उसने जिंदगी में नहीं देखा होगा।
एक यह बेगम थीं, जो तलवार की धार दिखाकर अंग्रेजों की ताकत को चुनौती दे रही थीं। उनकी बहादुरी के किस्से क्या अवध, क्या अजमेर, क्या लंदन और क्या लाहौर – हर कहीं सुने जा रहे थे। मगर इतिहास ने ऐसी अनेक वीरांगनाओं के साथ न्याय नहीं किया। इसी हिंदुस्तान में कई लोगों ने कभी ब्रिटिश महारानी की जय-जयकार की थी लेकिन बेगम हजरत महल का नाम धीरे-धीरे उनकी याददाश्त से गुम हो गया।
मुझे याद है, जब मैं पांचवीं कक्षा का छात्र था, तब सिर्फ एक पाठ में बेगम साहिबा का जिक्र हुआ था। उसके अलावा उनका कहीं नाम नहीं आया।
वतन से दूर नेपाल में उनका देहांत हुआ था। जिस देश की आजादी के लिए उन्होंने लहू बहाया, वहां की मिट्टी भी उन्हें मयस्सर नहीं हुई। मौत के बाद उन्हीं के लोग उन्हें भूल गए। काठमांडू की एक मस्जिद के पास उन्हें दफनाया गया था।
भारत में एक फीसदी लोग भी नहीं जानते होंगे कि इस देश की एक बहादुर बेटी ने आजादी का सपना देखा था और नेपाल की सरजमीं पर उसने आखिरी सांस ली।
साल 1947 में हमारे हिस्से में आजादी आई और हजरत महल जैसों के नसीब में बेकद्री। किसी को हिंदुस्तान मिल गया और किसी को पाकिस्तान, मगर जिनकी बदौलत यह हासिल हुआ, उन्हें तो अपना नाम भी नहीं मिला। वे तो पहचान के भी मोहताज हो गए।
ऐसा ही एक नाम था बेगम हजरत महल। अगर इतिहास को खामोशी पसंद न होती तो लोग उन्हें भी झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की तरह याद करते।
– राजीव शर्मा – गांव का गुरुकुल से
English Summary
It is said that sometime history becomes very cruel. They have eyes and ears too, but they cannot see some things and cannot tell the truth.