देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को पूरी तरह से खो चुकी है। इसके लिए न केवल राजनीतिक दल बल्कि ये राजनीतिक व्यवस्था भी दोषी है। दरअसल, मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बाधित करने में SC आरक्षण की बड़ी भूमिका है।
‘इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज’ की ताजा रिपोर्ट ‘‘संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व’’ विषय पर अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में लगभग 20 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले 96 लोकसभा क्षेत्र हैं। इनमें सर्वाधिक 28 क्षेत्र उत्तर प्रदेश में हैं। पश्चिम बंगाल में 20, बिहार, असम और केरल में नौ, जम्मू कश्मीर में छह और महाराष्ट्र में पांच क्षेत्र हैं।
संसदीय आंकड़ों के मुताबिक अब तक सभी 16 लोकसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व चार से नौ प्रतिशत तक रहा। सर्वाधिक 49 मुस्लिम सांसद 1980 में (9.08 प्रतिशत) और सबसे कम 23 सांसद (4.24 प्रतिशत) मौजूदा 16वीं लोकसभा में चुनकर आये।
रिपोर्ट के मुताबिक 2008 में परिसीमन आयोग ने विधयिका में मुस्लिम प्रतिनिधित्व और आबादी में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की हिस्सेदारी को ध्यान में रखते हुये लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों का सीमांकन किया। इसमें 2001 की जनगणना को आधार मानते हुये 2026 तक के लिये परिसीमन कर आरक्षित सीटों का निधार्रण किया गया।
रिपोर्ट में अपर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व के कारण जानने के लिये जनसांख्यकीय विश्लेषण से पता लगा कि मौजूदा व्यवस्था में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की तर्ज पर मुस्लिम समुदाय के लिये विधायिका में सीटों का आरक्षण संभव नहीं है। इसके बावजूद 20 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाली नौ सीटें अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये आरक्षित होने के कारण इन पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व के दरवाजे बंद हो गये।
इनमें उत्तर प्रदेश की नगीना, बाराबंकी और बहराइच, पश्चिम बंगाल की कूच बिहार, जॉयनगर, मथुरापुर, बर्धमान पूर्बा और बोलपुर तथा असम की करीमगंज सीट शामिल हैं। अध्ययन में अपर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व की दूसरी वजह परिसीमन के फार्मूले को बताया गया है। इसके अनुसार, परिसीमन प्रक्रिया में जिस तरह अनुसूचित जनजातियों के लिये सीट आरक्षित करने का तरीका निर्धारित है, उस तरह अनुसूचित जाति के लिये सीट निर्धारण का कोई तरीका परिभाषित नहीं किया गया है। अनुसूचित जातियों के लिये सीटों का आरक्षण पूरी तरह से परिसीमन आयोग के विवेक पर निर्भर होने के कारण यह असमानता अधिक हो गयी है।
रिपोर्ट में अनुसूचित जातियों की तुलना में मुस्लिम आबादी की अधिकता वाली नौ आरक्षित सीटों के अलावा उत्तर प्रदेश की धरौरा, अमेठी, रायबरेली, उन्नाव और सीतापुर तथा असम में सिल्चर सीटों पर अनुसूचित जातियों की बहुलता के बावजूद ये अनारक्षित श्रेणी में है। रिपोर्ट के अनुसार विधायिका में विभिन्न वर्गों के असमान प्रतिनिधित्व की इन वजहों का जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2006) में भी किया गया है।
देश में अगले महीने होने जा रहे आम चुनाव में 96 मुस्लिम बहुल लोकसभा क्षेत्रों पर सभी दलों की नजर है। चुनावी दंगल में किस्मत आजमा रहे कुछ राजनीतिक दलों की रणनीति इन सीटों पर मतविभाजन की है तो कोई मतों के ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश में है।
देश की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी अपने राजनीतिक प्रतिनिधित्व को पूरी तरह से खो चुकी है। इसके लिए न केवल राजनीतिक दल बल्कि ये राजनीतिक व्यवस्था भी दोषी है। दरअसल, मुसलमानों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को बाधित करने में SC आरक्षण की बड़ी भूमिका है।
‘इंस्टीट्यूट ऑफ ऑब्जेक्टिव स्टडीज’ की ताजा रिपोर्ट ‘‘संसद में मुस्लिम प्रतिनिधित्व’’ विषय पर अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार पूरे देश में लगभग 20 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाले 96 लोकसभा क्षेत्र हैं। इनमें सर्वाधिक 28 क्षेत्र उत्तर प्रदेश में हैं। पश्चिम बंगाल में 20, बिहार, असम और केरल में नौ, जम्मू कश्मीर में छह और महाराष्ट्र में पांच क्षेत्र हैं।
संसदीय आंकड़ों के मुताबिक अब तक सभी 16 लोकसभाओं में मुस्लिम प्रतिनिधित्व चार से नौ प्रतिशत तक रहा। सर्वाधिक 49 मुस्लिम सांसद 1980 में (9.08 प्रतिशत) और सबसे कम 23 सांसद (4.24 प्रतिशत) मौजूदा 16वीं लोकसभा में चुनकर आये।
रिपोर्ट के मुताबिक 2008 में परिसीमन आयोग ने विधयिका में मुस्लिम प्रतिनिधित्व और आबादी में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की हिस्सेदारी को ध्यान में रखते हुये लोकसभा एवं विधानसभा क्षेत्रों का सीमांकन किया। इसमें 2001 की जनगणना को आधार मानते हुये 2026 तक के लिये परिसीमन कर आरक्षित सीटों का निधार्रण किया गया।
रिपोर्ट में अपर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व के कारण जानने के लिये जनसांख्यकीय विश्लेषण से पता लगा कि मौजूदा व्यवस्था में अनुसूचित जाति एवं जनजाति की तर्ज पर मुस्लिम समुदाय के लिये विधायिका में सीटों का आरक्षण संभव नहीं है। इसके बावजूद 20 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम आबादी वाली नौ सीटें अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिये आरक्षित होने के कारण इन पर मुस्लिम प्रतिनिधित्व के दरवाजे बंद हो गये।
इनमें उत्तर प्रदेश की नगीना, बाराबंकी और बहराइच, पश्चिम बंगाल की कूच बिहार, जॉयनगर, मथुरापुर, बर्धमान पूर्बा और बोलपुर तथा असम की करीमगंज सीट शामिल हैं। अध्ययन में अपर्याप्त मुस्लिम प्रतिनिधित्व की दूसरी वजह परिसीमन के फार्मूले को बताया गया है। इसके अनुसार, परिसीमन प्रक्रिया में जिस तरह अनुसूचित जनजातियों के लिये सीट आरक्षित करने का तरीका निर्धारित है, उस तरह अनुसूचित जाति के लिये सीट निर्धारण का कोई तरीका परिभाषित नहीं किया गया है। अनुसूचित जातियों के लिये सीटों का आरक्षण पूरी तरह से परिसीमन आयोग के विवेक पर निर्भर होने के कारण यह असमानता अधिक हो गयी है।
रिपोर्ट में अनुसूचित जातियों की तुलना में मुस्लिम आबादी की अधिकता वाली नौ आरक्षित सीटों के अलावा उत्तर प्रदेश की धरौरा, अमेठी, रायबरेली, उन्नाव और सीतापुर तथा असम में सिल्चर सीटों पर अनुसूचित जातियों की बहुलता के बावजूद ये अनारक्षित श्रेणी में है। रिपोर्ट के अनुसार विधायिका में विभिन्न वर्गों के असमान प्रतिनिधित्व की इन वजहों का जिक्र सच्चर कमेटी की रिपोर्ट (2006) में भी किया गया है।
देश में अगले महीने होने जा रहे आम चुनाव में 96 मुस्लिम बहुल लोकसभा क्षेत्रों पर सभी दलों की नजर है। चुनावी दंगल में किस्मत आजमा रहे कुछ राजनीतिक दलों की रणनीति इन सीटों पर मतविभाजन की है तो कोई मतों के ध्रुवीकरण की पुरजोर कोशिश में है।