जमीयत उलमा ए हिंद 12 मार्च को दिल्ली में बड़े स्तर पर राष्ट्रीय एकता सम्मेलन करने जा रही है. दिल्ली के इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम में आजोयित होने वाले इस सम्मेलन में ईसाई, दलित समुदाय के प्रतिनिधियों को भी आमंत्रित किया गया है. सम्मेलन का मकसद देश की मौजूदा सरकार द्वारा देश को हिंदूराष्ट्र बनाने की कोशिशों पर लगाम लगाना है.
जमीयत प्रमुख मौलाना अरशद मदनी सभी धर्मों के रहनुमाओं के साथ मिलकर राष्ट्रीय एकता पर एक घोषणा-पत्र जारी करने वाले हैं. सम्मेलन में ईसाई और दलित समुदाय के प्रतिनिधि भी शामिल होंगे. सम्मेलन की जरूरत, इसकी चिंताओं पर मौलाना अरशद मदनी से विशेष बातचीत:
जमीयत उलमा-ए-हिंद के राष्ट्रीय एकता सम्मेलन का मकसद क्या है?
इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि आज खुलेआम भड़काऊ बयान दिए जा रहे हैं. मुसलमानों और इसाइयों की घर वापसी का प्रोग्राम चलाया जा रहा है. मुसलमानों से वोट देने का हक़ छीनने की बात हो रही है. इस्लाम को दहशतगर्दी का मज़हब बताया जा रहा है. इस तरह के बयानों से हमारा ज़हन कुंद किया जा रहा है. ऐसे माहौल में हमें यह करना पड़ेगा.
इस कार्यक्रम के जरिए आप सरकार को घेरना चाहते हैं?
हम सरकार का मुकाबला नहीं कर सकते, लेकिन हम चुप बैठे रहकर अपनी बची-खुची ताक़त भी बेकार नहीं कर सकते. बीजेपी ने उत्तर प्रदेश में सोच-समझकर टिकट दिया था और वो जीतकर भी आए. वो सारे उसी ख़्याल के लोग हैं. उनके पास जाने से वो बदल जाएंगे, ऐसा सोचना गलत है. सरकार चली जाएगी तो हालात सुधरने लगेंगे. अगले चुनाव के बाद बीजेपी झाग की तरह बह जाएगी. तब तक मुसलमान सब्र करें.
आपके पर्चे में ये भी लिखा है कि संविधान से छेड़छाड़ की तैयारी चल रही है?
बिल्कुल, ऐसा कैसे हो सकता है कि हिंदुस्तान में बसने वाले सभी लोगों के लिए एक कानून बना देना चाहिए. दस्तूर ने हमें हुकूक दिए हैं बहैसियत अक्लियत के. आप उनको तब्दील करना चाहते हैं? इसका मतलब है कि आप अक्लियत के वजूद को खत्म करना चाहते हैं. हम ऐसा नहीं होने दे सकते.
क्या यह चिंता सिर्फ मुसलमानों की चिंता है?
बिल्कुल नहीं. हमने सभी धर्मों के नेताओं को दावत दी है. सभी पहुंच रहे हैं. 12 तारीख़ को 40 हज़ार लोगों के बीच जमीयत घोषणापत्र जारी करेगी. फिरक़ापरस्ती का कारख़ाना कोई एक दल नहीं चल रहा है. ये कांग्रेस के राज में शिवराज पाटिल भी कर सकते हैं और समाजवादी पार्टी के राज में मुलायम सिंह यादव में भी. इसलिए आज मैं किसी भी दल या नेता से ऊपर उठकर बात कर रहा हूं. अगर आझ इसे रोका नहीं गया तो मुल्क की तबाही का बायस बन जाएगा.
कौन लोग हैं जो इसे हवा दे रहे हैं?
हर जगह से खादपानी मिल रहा है. 65 साल में ये ज़हर इतना ताकतवर हो चुका है कि अब हुकूमत कर रहा है. उसे लगता है कि वो देश में कुछ भी कर सकता है.
आप किसी का तो नाम लीजिए आदमी या पार्टी का?
हुक़ूमत चाहे जिसकी रही हो लेकिन ऐसे हालात पहले कभी नहीं रहे. इससे पहले भी बीजेपी ने शासन किया है लेकिन ऐसी दुश्वारी नहीं थी. तब हमने मुख़ालिफत भी नहीं की थी. ऐसी नफ़रत तो बंटवारे के वक़्त भी नहीं थी. इस वक्त जिसके हाथ में कमान है, उसके लोग आग उगल रहे हैं.
बंटवारे से बदतर हालात कैसे हैं?
देखिए, मुल्क बेशक टूटा था लेकिन उस वक़्त के नेता बहुत परिपक्व थे. आप उनके उस दौर के बयानात पढ़िए. ऐसे सतही और जहरीले बयान देने के बारे में नेता सोच भी नहीं सकते थे. तबाही आबादी का तबादला होने से हुई, लेकिन दिलों में इस क़दर नफ़रत नहीं थी. मैं पूरे तजुर्बे के साथ कह रहा हूं कि आज माहौल में ज़हर बंटवारे और 92 के दौर से ज़्यादा है.
तो फिर असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं को हुकूमत करनी चाहिए?
बिल्कुल नहीं. आग बरसाकर आग नहीं बुझाई जा सकती. फिरकापरस्ती का जवाब फिरकापरस्ती नहीं है. हमें प्यार और मुहब्बत को ही आगे लाना पड़ेगा, वरना बर्बादी तय है. ओवैसी ऐसा बोलकर सबकुछ पर पानी फेर देते हैं. उनकी हरकतों की वजह से मुसलमानों की इमेज ख़राब होती है.
मौजूदा हालात के लिए क्या मुसलमान भी एक हद तक जिम्मेदार नहीं हैं. बुर्का के नाम पर केरल में स्टूडियो जला दिया. अदने से नेता कमलेश तिवारी के बयान पर लाखों की संख्या में सड़कों पर उतर आए. इन्हें भी तो समझना होगा?
मुसलमानों ने गलत किया, लेकिन गुस्सा इंसानी फितरत है. कभी हिंदू तो कभी मुसलमान ऐसी प्रतिक्रिया देते रहते हैं. अभी हरियाणा में दो दर्जन से ज़्यादा मौतें हुईं और 34 हज़ार करोड़ की संपत्ति ख़ाक हो गई.
क्या हिंदू मज़हब को हिंसक कह देना चाहिए?
दरअसल हिंसा में धर्म तलाशना ही एक भयावह राजनीति है. ऐसा लगता है कि मुसलमानों पर आतंकवाद का ठप्पा लग चुका है. अभी हाल में गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने उलेमाओं से मुलाक़ात कर आतंकवाद के ख़िलाफ़ आगे आने की अपील की है.
पगड़ी बांधकर और दाढ़ी बढ़ाकर कोई खड़ा हो जाएगा तो क्या आप उसे मज़हब का रहनुमा कह देंगे?
मज़हबी रहनुमा वो हैं, जिनके पीछे लोग खड़े होते हैं. ऐसा नहीं होता कि कोई आदमी लंबा कुर्ता पहन ले और पगड़ी बांध ले तो वो मज़हबी रहनुमा बन जाएगा.
मगर मुस्लिम समाज की भी कमियों को आप नकार नहीं सकते?
बेशक कम से कम उन्हें अपना रहन-सहन बदलना चाहिए. दलित हो या ब्राह्मण, उनके दुखसुख में शरीक होना चाहिए. साथ रहने वाली दूसरी कौमों और बिरादरियों की इज्ज़त ही पैगंबर मुहम्मद का पैग़ाम है. पुरानी तारीख़ तभी ज़िंदा हो सकती है जब मुसलमान अपना आमाल ठीक करे. हमने अपने बचपन में देखा है कि देहात में बड़ी उम्र के हिंदू को ताऊ और चाचा कहा जाता था. हम उनकी बातें ख़ुशी-ख़ुशी मानते थे लेकिन आज वो हालात नहीं हैं. उसकी वजह से दोनों कौमों को अलग-अलग छोर पर धकेल दिया गया है. (catchnews)