राजधानी दिल्ली की मशहूर हजरत निजामुद्दीन की दरगाह पर सदियों से बसंत पंचमी मनती आई हैं. हर साल की तरह इस साल भी बड़ी ही धूमधाम से बसंत पंचमी मनाई गई. साल के अन्य दिनों में यहां हरे रंग की चादर चढ़ाई जाती है लेकिन बसंत पंचमी होने की वजह से यहां पीली चादर और पीले फूल चढ़ाए गए. लोगों ने यहां बैठकर बसंत के गीत और बसंत से जुड़ी कव्वाली भी गाई.
जाने माने सूफी कव्वाल युसुफ खान निजामी बताते हैं कि मुस्लिम सूफी संत बिना किसी धार्मिक भेदभाव के हिंदुओं व अन्य धर्मो के अनुयायियों को सूफीमत के बुनियादी उसूलों की शिक्षा देते थे. यही नहीं, वे उनके धर्म का पूरा ज्ञान भी रखते थे. सूफी दरगाहों पर बसंत पंचमी की जश्न आज भी कई दिनों तक चलता है. मुसलमानों में यह रिवाज तेरहवीं-चौदहवीं शताब्दी में अमीर खुसरो ने दिल्ली में शुरू किया था, जो हजरत निजामुद्दीन के शिष्य थे. खुसरो को पहले उर्दू शायर के तौर पर ख्याति प्राप्त है।. दिल्ली में इन दोनों गुरु-शिष्य की दरगाह और मकबरा आमने-सामने ही बनाये गये हैं.
कहा जाता हैं कि हजरत निजामुद्दीन को अपनी बहन के लड़के सैयद नूह से अपार स्नेह था. नूह बेहद कम उम्र में ही सूफी मत के विद्वान बन गए थे और हजरत अपने बाद उन्हीं को गद्दी सौंपना चाहते थे. लेकिन नूह का जवानी में ही देहांत हो गया. इससे हजरत निजामुद्दीन को बड़ा सदमा लगा और वह बेहद उदास रहने लगे.
#VasantaPanchami being celebrated at Hazrat Nizamuddin Dargah in Delhi pic.twitter.com/wNcRk9WniO
— ANI (@ANI) January 22, 2018
अमीर खुसरो अपने गुरु की इस हालत से बड़े दुखी थे और वह उनके मन को हल्का करने की कोशिशों में जुट गए. इसी बीच वसंत ऋतु आ गई. एक दिन खुसरो अपने कुछ सूफी दोस्तों के साथ सैर के लिए निकले. रास्ते में हरे-भरे खेतों में सरसों के पीले फूल ठंडी हवा के चलने से लहलहा रहे थे. उन्होंने देखा कि प्राचीन कलिका देवी के मंदिर के पास हिंदू श्रद्धालु मस्त हो कर गाते- बजाते नाच रहे थे. इस माहौल ने खुसरो का मन मोह लिया. उन्होंने भक्तों से इसकी वजह पूछी तो पता चला कि वह ज्ञान की देवी सरस्वती को खुश करने के लिए उन पर पर सरसों के फूल चढ़ाने जा रहे हैं.
तब खुसरो ने कहा, मेरे देवता और गुरु भी उदास हैं. उन्हें खुश करने के लिए मैं भी उन्हें वसंत की भेंट, सरसों के ये फूल चढ़ाऊंगा. खुसरो ने सरसों और टेसू के पीले फूलों से एक गुलदस्ता बनाया. इसे लेकर वह निजामुद्दीन औलिया के सामने पहुंच कर खूब नाचे-गाए. उनकी मस्ती से हजरत निजामुद्दीन की हंसी लौट आई. तब से जब तब खुसरो जीवित रहे, वसंत पंचमी का त्योहार मनाते रहे. खुसरो के देहांत के बाद भी चिश्ती सूफियों द्वारा हर साल उनके गुरु निजामुद्दीन की दरगाह पर वसंत पंचमी का त्योहार मनाया जाने लगा.