जब बुल्ले शाह बाबा ने कहा ” मुझे सैयद कहने वाले जेह्न्नुमी”

बुल्ले शाह बाबा ने अपने पीर से कहा ” मुझे ख़ुदा से मिला दो “
पीर शाह इनायत से जवाब दिया ” पहले खुद को भुला दो “

पीर इनायत जाति से अराईं थे तो जन्म से सैय्यद बुल्ले शाह बाबा के परिवार को भला ये कैसे स्वीकार हो जाता की एक सैय्यद किसी दुसरे जाति के पीर को अपना उस्ताद बनाये, बुल्ले शाह को तो ठहरे निरे मनमौजी वो भला कहाँ किसी की बात सुनने वाले थे घर वालो ने कोशिश की लेकिन हार गये सारी रिश्तेदारों भाई,बहन , भाभियों को समझाने के लिए भेजा गया लेकिन बुल्ले शाह बाबा ने ऐसा जवाब दिया की कुछ सुनते और बोलते न बनी

बुल्ले नूँ समझावन आँईयाँ भैनाँ ते भरजाईयाँ
‘मन्न लै बुल्लेया साड्डा कैहना, छड्ड दे पल्ला राईयाँ

आल नबी, औलाद अली, नूँ तू क्यूँ लीकाँ लाईयाँ?’
‘जेहड़ा सानू सईय्यद सद्दे, दोज़ख़ मिले सज़ाईयाँ

जो कोई सानू राईं आखे, बहिश्तें पींगाँ पाईयाँ
राईं-साईं सभनीं थाईं रब दियाँ बे-परवाईयाँ

सोहनियाँ परे हटाईयाँ ते कूझियाँ ले गल्ल लाईयाँ
जे तू लोड़ें बाग़-बहाराँ चाकर हो जा राईयाँ
बुल्ले शाह दी ज़ात की पुछनी? शुकर हो रज़ाईयाँ’

बुल्ले शाह बाबा ने साफ़ कह दिया के भाई अगर तुम सैयद होने के नाते मुझे समझाने आये हो तो साफ़ समझ लो अगर तुमने मुझे सैयद कहा तो तुम जेह्न्न्मी हो और अगर मुझे अराईन कहोंगे तो जन्नत मिलेगी

कहने का मतलब तो साफ़ था के भाई अब बुल्ले शाह अपने गुरु से ऐसे मिल गया है जैसे समुंद में पानी की बूँद अब ना कोई जाति का भेद है न ऊंच नीच का

अब हुआ यूँ की कुछ दिनों बाद बुल्ले शाह के घर में किसी की शादी थी तो शागिर्द होने के नाते बुल्ले शाह ने पीर इनायत को भी न्योता भेजा, पीर तो ठहरे फ़क़ीर उन्हें भला इन शादी समारोह से क्या मतलब सोचा बुल्ला बुरा ना मान जाये इसीलिए अपने एक और शागिर्द को भेज दिया, शागिर्द को खुद में पीर इनायत की छवि था पहुँच गया फटे पुराने कपडे पहनकर शादी में, अब बुल्ले शाह बाबा के रिश्तेदारों ने मज़ाक बनानी शुरू कर दी, बुल्ले शाह काफी हिचकिचाए और बेचारे शागिर्द को ख़ास तवज्जो नही दी

शागिर्द आया पीर इनायत के पास और सारा माजरा सुनाया, पीर साब को बहुत बुरा लगा , जब बुल्ले शाह मिलने पहुंचे तो पीर साब ने पीठ कर ली और ऐलान कर दिया के अब बुल्ले का चेहरा नही देखूंगा,

लो जी अब हो गया बेड़ा-गर्क जो रूहानी ताकत पीर से मिल रही थी वो खत्म , लग गया ताला उस पे अब कैसे मनाऊ अपने पीर को जिसका चेहरा आँखों में रौशनी की तरह बस गया है , मुरीद नूर को जाने वाले रास्ते में भटक रहा था। क्या करता बहुत मनाया, पर मुरशद तो मुरशद है, जिसको चाहे आलिम (अक्लमंद) करदे, जिसे चाहे अक्ल से खाली कर दे। बुल्ला मुरशद रांझे के लिए तड़पती हीर हो गया। उन्होंने कंजरी से नाचना सीखा, खुद कंजरी बन पैरों में घुंघरू बांध, नंगे पांव गलियों में निकल पड़े।

शाह इनायत को संगीत पसंद था, बुल्ला संगीत में डूब कर खुद को भूल गया। एक पीर के उर्स पर जहां सारे फकीर इक्टठे होते, बुल्ला भी पहुंच गया। मुरशद से जुदाई की तड़प में बुल्ले ने दिल से खून के कतरे-कतरे को निचोड़ देने वाली काफीयां लिखी थीं। जब सब नाचने-गाने वाले थक कर बैठ गए, बुल्ला मुरशद के रंग में रंगा घंटो नाचता गाते रहे। उसकी दर्द भरी आवाज़ और समर्पण से भरे बोल मुरशद का दिल पिघला गए। जाकर पूछा तू बुल्ला है? वो पैरों पर गिर पड़ा, बुल्ला नहीं मुरशद मैं भुल्ला (भूला हुआ/भटका हआ) हां।

मुरशद ने सीने से लगाकर भुल्ले को जग के बंधनों से मुक्त कर अल्लाह की रमज़ से मिला दिया।

जारी रहेगा …

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