फ़लस्तीन का नाम ज़ेहन में आते ही, एक ऐसी जगह का तसव्वुर होता है, जहां ख़ून-ख़राबे, बर्बादी, बदहाली के सिवा कुछ नहीं. अरबों और यहूदियों के बीच जंग का अखाड़ा बना फ़लस्तीन, तबाही और नाउम्मीदी का दूसरा नाम बन चुका है. मगर अब इसी फ़लस्तीन की ग़ज़ा पट्टी में लगी है उम्मीदों की फ़ैक्ट्री. ये फ़ैक्ट्री लगाई है फ़लस्तीनी मूल के अमरीकी कारोबारी ज़ही ख़ौरी ने.
ज़ही आज से 67 साल पहले अपने मां-बाप के साथ फ़लस्तीन छोड़कर चले गए थे. उस समय उनकी उम्र सिर्फ़ नौ साल थी और 1948 में इसराइल एक नए राष्ट्र के रूप में जन्म ले रहा था. वही ज़ही अब 67 साल के बाद अपने वतन वापस लौटे हैं और उन्होंने हिंसा और बर्बादी के शिकार ग़ज़ा पट्टी में कोका कोला की फ़ैक्ट्री लगाई है.
ये एक बड़ा दांव है. उस इलाक़े के लिए जो हताशा और नाउम्मीदी का दूसरा नाम है. फ़लस्तीन में बेरोज़गारी की दर दुनिया में शायद सबसे ज़्यादा है. यहां की 42 फ़ीसदी आबादी बेरोज़गार है. ऐसे में ख़ौरी की फ़ैक्ट्री, क़रीब साढ़े चार सौ लोगों को सीधे रोज़गार देती है.
ज़ही की कहानी बेहद दिलचस्प है. इसराइल के जफ़ा शहर में एक इसाई परिवार में पैदा हुए ज़ही के माता-पिता, 1948 में उस वक़्त देश छोड़कर चले गए थे, जब अरब-इसराइल युद्ध के पहले शोले भड़के थे. ज़ही को आज भी लगता है कि उनके मां-बाप का फ़ैसला ग़लत था. आख़िर, फ़लस्तीन उनका घर था.
77 बरस के ज़ही ख़ौरी ने क़रीब आधी सदी, अपने वतन से बाहर गुज़ारी. यूरोप में पढ़ाई की, फ्रांस से एमबीए की डिग्री ली. कई बड़ी और मशहूर अमरीकी कंपनियों में काम किया.
वो सऊदी अरब के मशहूर कारोबारी ग्रुप ओयालान के प्रेसीडेंट पद से रिटायर हुए. शानदार करियर के बाद उनके पास नाम था, पैसा था. वो चाहते तो आराम से अपनी ज़िंदगी के बाक़ी बचे दिन, अमरीका के किसी शहर में अपने विला में गुज़ार सकते थे. लेकिन, ज़ही ख़ौरी ने अपने वतन लौटकर, कुछ नया करने का फ़ैसला किया. 1997 में उन्होंने इस इलाक़े में कोका कोला का पहला प्लांट लगाया था.
और अब इस महीने ज़ही कुछ ऐसा करने जा रहे हैं, जिसे जुए के सिवा कुछ और नहीं कहेंगे. वो दुनिया के सबसे ख़तरनाक इलाक़ों में से एक, ग़ज़ा पट्टी में कोका कोला का बॉटलिंग प्लांट लगा रहे हैं. जिससे 250 लोगों को सीधे रोज़गार मिलेगा और क़रीब एक हज़ार लोगों को उनके प्लांट की वजह से और काम मिलेगा. ये क़रीब 2 करोड़ अमरीकी डॉलर, या यही कोई 135 करोड़ रुपयों का निवेश है.
दूसरे लोग भले ही इसे जुआ कहें. लेकिन, ज़ही इसे फ़लस्तीन में उम्मीदों का इन्वेस्टमेंट मानते हैं. ज़ही कहते हैं कि जब किसी जगह पर मैकडोनाल्ड या कोका कोला होता है, तो वो जगह ख़ुद ब ख़ुद बाक़ी दुनिया से जुड़ जाती है.
ख़ौरी को ये जुआ खेलने का, या यूं कहें कि उम्मीदों में निवेश का हौसला, 1993 के इसराइल-फ़लस्तीन के बीच हुए ओस्लो समझौते से मिला. और अपने शानदार कारोबारी तजुर्बे की वजह से वो पिछले बीस साल से ग़ज़ा जैसे ख़तरनाक इलाक़े में कारोबार कर रहे हैं. कामयाबी के कारख़ाने लगा रहे हैं. 1948 में हज़ारों अरब लोगों की तरह ज़ही के माता-पिता ने, अपना वतन छोड़ने के बाद, पड़ोसी लेबनान में शरण ली थी. बाद में वो पढ़ने के लिए यूरोप के लिए चले गए थे.
जर्मनी से उन्होंने इंजीनियरिंग की पढ़ाई की. और फ्रांस के फोंटेनब्लू शहर से एमबीए की डिग्री ली. इसके बाद उन्हें, अमरीका की मशहूर रेनॉल्ड्स मेटल कंपनी और फेल्प्स डॉज के साथ काम करने का मौक़ा मिला.
पिछली सदी के साठ और सत्तर के दशक में जब उनकी कंपनी की दूसरी यूनिट्स, मज़दूर आंदोलनों से जूझ रही थीं, ब्राज़ील में ज़ही की फेल्प्स डॉज की अपनी यूनिट में एक बार भी हड़ताल नहीं हुई. इससे उनकी लीडरशिप क्वालिटी का पता चलता है.
अमरीकी कंपनियों में काम करने की वजह से ज़ही को सत्तर के दशक में ही अमरीकी नागरिकता मिल गई. 1973 में वो लेबनान में अमरीकन एक्सप्रेस के इन्वेस्टमेंट बैंक की मैनेजमेंट टीम में थे. बाद में ज़ही ने सऊदी अरब के ओयालयान ग्रुप में हिस्सेदारी ख़रीद ली, जो इलाक़े की सबसे बड़े कारोबारी समूहों में से एक है. अगले बीस सालों तक वो ओयालयान ग्रुप के साथ जुड़े रहे. 1994 में वो इसकी मूल कंपनी के प्रेसीडेंट के तौर पर रिटायर हुए.
लेकिन, रिटायरमेंट के बाद उन्होंने अपने वतन के लिए कुछ करने का जुनून पाल लिया. उन्होंने कोका कोला को इस बात के लिए राज़ी करने की कोशिश की कि वो फ़लस्तीन में निवेश करे. इसमें दो साल लगे और 1997 में आख़िरकार कोका कोला ने फ़लस्तीन में पहला प्लांट लगाना शुरू किया. जिसमें 1998 में प्रोडक्शन शुरू हुआ.
ज़ही ख़ौरी कहते हैं कि उन्हें पहली बार लगा कि वो अपने देश में हैं, उसके नागरिक हैं. इससे पहले उन्होंने जहां भी काम किया था, उन्हें लगता था कि वो उस देश में मेहमान हैं. हालांकि चालीस साल दूसरे देशों में गुज़ारकर फ़लस्तीन लौटे ज़ही ख़ौरी जब वापस आए तो उन्हें अपना वतन एकदम बदला सा लग रहा था.
उनके शहर का चैन-सुकून ख़त्म हो चुका था. एक अलसाया सा शहर जफ़ा, आज मशहूर टूरिस्ट स्पॉट बन चुका था. फ़लस्तीन और इसराइल के बीच लगातार जारी लड़ाई की वजह से ग़ज़ा में कारोबार करना, ज़ही के लिए उम्मीद से कहीं बड़ी चुनौती साबित हुआ.
इसराइल की सख़्ती की वजह से ग़ज़ा में कोई भी सामान लाना बेहद मुश्किल प्रक्रिया है. कई तरह की सुरक्षा जांच होती है. इसके बाद जब तब भड़क उठने वाली हिंसा अलग है. ज़ही याद करते हैं कि साल 2002 के इंतिफ़ादा (इसराइल सरकार के ख़िलाफ़ फ़लस्तीनी युवाओं का विरोध प्रदर्शन) के दौरान उन्होंने गधों पर लादकर अपने सामान की डिलिवरी की थी.
इलाक़े में काम करने वाले एक राजनयिक किटो दे बोअर कहते हैं कि ज़ही जो कर रहे हैं, वो मलबे और तबाही के बीच एक नई इमारत खड़ी करने जैसा है. ज़ही ने उम्मीदों के इन कारख़ानों में ख़ुद का भी अच्छा ख़ासा पैसा लगाया है.
उन्होंने ग़ज़ा की फ़ैक्ट्री में ख़ुद के तीस लाख डॉलर या क़रीब बीस करोड़ रुपयों का निवेश किया है. इसके अलावा उन्होंने इलाक़े की बड़ी संचार कंपनी प्लाटेल में भी अच्छा ख़ासा पैसा लगाया है. साथ ही इलाक़े में स्टार्ट अप कंपनियों की मदद के लिए एक करोड़ डॉलर का फंड जमा करने में भी मदद की है.
किसी ने ज़ही ख़ौरी से पूछा कि आपको क्या लगता है, ये सही निवेश था. वो मुस्कुराते हुए जवाब देते हैं, “मुझे बड़ी उपलब्धि का एहसास होता है”
ख़ौरी अब फ़लस्तीन के कारोबारी समुदाय के प्रवक्ता से बन गए हैं. हालांकि इससे उनके कारोबारी हितों पर असर पड़ता है. लेकिन जो उन्हें जानते हैं, वो उन्हें फ़लस्तीन का शांति दूत बताते हैं. पिछले साल शांति और अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीतने वालों ने ज़ही ख़ौरी और चार दूसरे लोगों को इस रोल के लिए सम्मानित किया था.
अमरीका के मशहूर एनजीओ, स्कॉल फ़ाउंडेशन की प्रमुख सैली ओसबर्ग कहती हैं कि ज़ही ने ग़ज़ा में कामयाबी से कोका कोला की फ़ैक्ट्री चलाकर चमत्कार कर दिखाया है. जो जगह कभी नाउम्मीदी का दूसरा नाम थी, वहां आज उम्मीदों की फ़ैक्ट्री चल पड़ी है. (बीबीसी हिंदी)